Monday, January 6, 2020

DurgaStuti दुर्गास्तुतिः


DurgaStuti 
DurgaStuti is in Sanskrit. It is a praise of Durga Mata. It is done by Vedas. It is from MahaBhagwat Mahapuran.
दुर्गास्तुतिः
श्रुतय ऊचुः
दुर्गे विश्र्वमपि प्रसीद परमे सृष्ट्यादिकार्यत्रये
ब्रह्माद्याः पुरुषास्त्रयो निजगुणैस्त्वत्स्वेच्छया कल्पिताः ।
नो ते कोऽपि च कल्पकोऽत्र भुवने विद्येत मातर्यतः 
कः शक्तः परिवर्णितुं तव गुणॉंल्लोके भवेददुर्गमान् ॥ १ ॥
१) वेदोंने कहा--- दुर्गे आप सम्पूर्ण विश्वपर कृपा कीजिये  । परमे ।
आपने ही अपने गुणोंके द्वारा स्वेच्छानुसार सृष्टि आदि तीनों कार्योंके निमित्त ब्रह्मा आदि तीनों देवोंकी रचना की है, इसलिये इस जगत्मे आपको रचनेवाला कोई भी नहीं हैं । माता आपके दुर्गम गुणोंका यथार्थ वर्णन करनेवाला इस लोकमें भला कौन समर्थ हो सकता है ? (तो कोई नही )  
त्वामाराध्य हरिर्निहत्य समरे दैत्यान् रणे दुर्जयान् 
त्रैलोक्यं परिपाति शम्भुरपि ते धृत्वा पदं वक्षसि ।
त्रैलोक्यक्षयकारकं समपिबद्यत्कालकूटं विषं 
किं ते वा चरितं वयं त्रिजगतां ब्रूमः परित्र्यम्बिके ॥ २ ॥
२) भगवान विष्णु आपकीही आराधना करके उसके प्रभावसे दुर्जय दैत्योंको युद्धभूमीपर मारकर तीनो लोकोंकी रक्षा करते हैं ।
भगवान शिवने भी अपने हृदयपर आपका चरण धारण कर तीनों लोकोंका विनाश करनेवाले कालकूट विषका पान कर लिया था ।
तीनों लोकोंकी रक्षा करनेवाली अम्बिके हम आपके चरित्रका वर्णन कैसे कर सकते है?   
या पुंसः परमस्य देहिन इह स्वीयैर्गुणैर्मायया 
देहाख्यापि चिदात्मिकापि च परिस्पन्दादिशक्तिः परा ।
त्वन्मायापरिमोहितास्तनुभृतो यामेव देहस्थिता 
भेदज्ञानवशाद्वदन्ति पुरुषं तस्यै नमस्तेऽम्बिके ॥ ३ ॥
३) जो अपने गुणोंसे मायाके द्वारा इस लोकमें साकार परम पुरुषके देहस्वरुपको धारण करती हैं और जो पराशक्ति ज्ञान तथा क्रियाशक्तिके रुपमें प्रतिष्ठित हैं; आपकी उस मायासे विमोहित शरीरधारी प्राणी भेदज्ञनके कारण सर्वान्तरात्माके रुपमें विराजमान आपको ही पुरुष कह देते हैं; अम्बिके ! उन आप महादेवीको नमस्कार है  । । ३ ॥ 
स्त्रीपुंस्त्वप्रमुखैरुपाधिनिचयैर्हीनं परं ब्रह्म यत् 
त्वत्तो या प्रथमं बभूव जगतां सृष्टौ सिसृक्षा स्वयम् ।
सा शक्तिः परमाऽपि यच्च समभून्मूर्तिद्वयं शक्तित-
स्त्वन्मायामयमेव तेन हि परं ब्रह्मापि शक्त्यात्मकम् ॥ ४ ॥
४) स्त्री-पुरुषरुप प्रमुख उपाधिसमूहोंसे रहित जो परब्रह्म है, उसमें जगत्की सृष्टिके निमित्त सर्व प्रथम सृजनकी जो इच्छा हुई, वह स्वयं आपकी ही शक्तिसे हुई और वह पराशक्ति भी स्त्री-पुरुषरुप दो मूर्तियोंमे आपकी शक्तिसे ही विभक्त हुई है । इस कारण वह परब्रह्म भी मायामय शक्तिस्वरिप ही है ॥   
तोयोत्थं करकादिकं जलमयं दृष्ट्वा यथा निश्चय-
स्तोयत्वेन भवेद् ग्रहोऽप्याभिमतां तथ्यं तथैव ध्रुवम् ।
ब्रह्मोत्थं सकलं विलोक्य मनसा शक्त्यात्मकं ब्रह्म त-
च्छक्तित्वेन विनिश्चितः पुरुषधीः पारं परा ब्रह्मणि ॥ ५ ॥ 
५) जिस प्रकार जलसे उत्पन्न ओले आदिको देखकर मान्यजनोंको यह जल ही है--ऐसा ध्रुव निश्र्चय होता है, उसी प्रकार ब्रह्मसे ही उत्पन्न इस समस्त जगत् को देखकर यह  शक्त्यात्मकब्रह्मही है---ऐसा मनमें होता है और पुनः परात्पर परब्रह्ममें जो पुरुषबुद्धि है, वह भी शक्तिस्वरुप ही है; ऐसा निश्चित होता है । 
षट्चक्रेषु लसन्ति ये तनुमतां ब्रह्मादयः षट्शिवा-
स्ते प्रेता भवदाश्रयाच्च परमेशत्वं समायान्ति हि ।
तस्मादीश्वरता शिवे नहि शिवे त्वय्येव विश्वाम्बिके 
त्वं देवि त्रिदशैकवन्दितपदे दुर्गे प्रसीदस्व नः ॥ ६ ॥
६) जगचम्बिके देहधारीयोंके शरीरमें स्थित षट्चक्रोंमें ब्रह्मादि जो छः विभूतियॉं सुशोभित होती हैं, वेप्रलयान्तमें आपके आश्रयसे ही परमेशपदको प्राप्त होती हैं । इसलिये शिवे ! शिवादि देवोंमे स्वयंकी ईश्र्वरता नहीं है, अपितु वह तो आपमें ही है । देवि ! एकमात्र आपके चरणकमल ही देवताओंके द्वारा वन्दित हैं । दुर्गे ! आप हमपर प्रसन्न हों ।     

॥ इति श्रीमहाभागवते महापुराणे वेदैः कृता दुर्गास्तुतिः सम्पूर्णा ॥
DurgaStuti 
दुर्गास्तुतिः


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