There are many Stotras in this blog of many Gods. Stotra is a blog for the people who have faith in God. If your are reading a devi stotra then for having more devi storas please click on Title.It's a link. If you recite any of the stotras you like, then results will be good and make your life happy and prosperous.I myself have experienced it and there are many people like me.The stotra is to be recited with full concentration daily.
Shri SatyaNarayanAshtakam Shri SatyaNarayanAshtakam is in Sanskrit. It is a very beautiful creation of Swami. He says in the Ashtakam that devotees who perform SatyaNaraya vrata Pooja all their desires are fulfilled. Shri SatyaNaraya is God of all people. God Satya Narayan is described in Upanishads. He lives in Sour Mandal.
श्रीसत्यनारायणाष्टकम्
सत्यज्ञानसुखं नानोपनिषद्गणसेवितम् ।
विश्र्वाधिष्ठानभूतं श्रीसत्यनारायणं स्तुमः ॥ १ ॥
नास्ति सत्यात्परो देवो नास्तिसत्यात्परं तपः ।
सर्वस्वं सत्यदेवश्रीसत्यनारायणं स्तुमः ॥ २ ॥
यद्व्रतात्सफलाः सर्वे नराः कांतासमन्विताः ।
नानाजात्युद्भवाश्र्च श्रीसत्यनारायणं स्तुमः ॥ ३ ॥
संप्राप्तारिष्टहर्ता यः सद्योध्यातः कलावपि ।
यस्मात्सेव्योखिलैश्र्च श्रीसत्यनारायणं स्तुमः ॥ ४ ॥
रज्जौ भुजंगवद्यस्मिन्जगद्भासोऽवभासते ।
भ्रमान्नवास्तवश्र्च श्रीसत्यनारायणं स्तुमः ॥ ५ ॥
अपवर्गसुखे यस्मादैहिकं पारलौकिकम् ।
नृणां भवति सद्यः श्रीसत्यनारायणं स्तुमः ॥ ६ ॥
यः सौरमंडले स्वाधिष्ठानत्वेन विराजते ।
सत्यः स सर्वगश्र्च श्रीसत्यनारायणं स्तुमः ॥ ७ ॥
भक्तावनाय यो मीनाद्यवतारपरिग्रही ।
स्वयं तु निर्गुणश्र्च श्रीसत्यनारायणं स्तुमः ॥ ८ ॥
ShivAshtottar ShatNam Stotram ShivAshtottar ShatNam Stotram is in Sanskrit. These are the 108 pious names of God Shiva. God Shiva had himself told these names to Goddess Paravati.
The devotee who recites these names regularly receives blessings from God Shiva who removes all his difficulties and fulfils his desires.
शिवअष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रम्
शिवो महेश्र्वरः शम्भुः पिनाकी शशिशेखरः ।
वामदेवो विरुपाक्षः कपर्दी नीललोहितः ॥ १ ॥
शंकरः शूलपाणिश्र्च खट्वाङ्गी विष्णुवल्लभः ।
शिपिविष्टोऽम्बिकानाथः श्रीकण्ठो भक्तवत्सलः ॥ २ ॥
भवः शर्वस्त्रिलोकेशः शितिकण्ठः शिवाप्रियः ।
उग्रः कपालिः कामारिरन्धकासुरसूदनः ॥ ३ ॥
गङ्गाधरो ललाटाक्षः कालकालः कृपानिधिः ।
भीमः परशुहस्तश्र्च मृगपाणिर्जटाधरः ॥ ४ ॥
कैलासवासी कवची कठोरस्त्रिपुरान्तकः ।
वृषाङ्को वृषभारुढो भस्मोद्धूलितविग्रहः ॥ ५ ॥
सामप्रियः स्वरमयस्त्रयीमूर्तिरनीश्र्वरः ।
सर्वज्ञः परमात्मा च सोमसूर्याग्निलोचनः ॥ ६ ॥
हविर्यज्ञमयः सोमः पञ्चवक्त्रः सदाशिवः ।
विश्र्वेश्र्वरो वीरभद्रो गणनाथः प्रजापतिः ॥ ७ ॥
हिरण्यरेता दुर्धोर्षो गिरीशो गिरिशो!नघः ।
भुजङ्गभूषणो भर्गो गिरिधन्वा गिरिप्रियः ॥ ८ ॥
कृत्तिवासा पुरारातिर्भगवान् प्रमथाधिपः ।
मृत्युंजयः सूक्ष्मतनुर्जगद्व्यापि जगद्गुरुः ॥ ९ ॥
व्योमकेशो महासेनजनकश्र्चारुविक्रमः ।
रुद्रो भूतपतिः स्थाणुरहिर्बुध्न्यो दिगम्बरः ॥ १० ॥
ShriSuryaAshtottrShatNam Stotram ShriSuryaAshtottrShatNam Stotram is in Sanskrit. These are 108 pious names of God Surya. These are from Mahabharat. These are told by Dhoumya Rushi to Partha. The devotee who recites these pious names in the morning all his desires are fulfilled by the blessings of God Surya.
श्रीसूर्याअष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्
श्रीगणेशाय नमः ॥ वैशंपायन उवाच ।
श्रुणुष्वावहितो राजन् शुचिर्भूत्वा समाहितः ।
क्षणं च कुरु राजेंद्र गुह्यं वक्ष्यामि ते हितम् ॥ १ ॥
मराठी अर्थ श्रीगणेशाला नमस्कार असो. वैशंपायन म्हणाले- हे राजेंद्रा, तू शूचिर्भूत (शुद्ध) होऊन बोलाविल्याप्रमाणे आला आहेस. तेव्हां तुझ्या हिताचे गुप्त वचन सांगतो. धौम्य ऋषींनी पार्थाला जी सूर्याची एकशे आठ पुण्यकारक नावे सांगितली ती ऐक. सूर्य, अर्यमा, भग, त्वष्टा, अर्क, सविता, रवि, गभस्तिमान, अज, काल, मृत्युर्धाता, प्रभाकर, पृथ्वी, आप, तेज, रव, वायु, परायण, सोम, बृहस्पति,शुक्र, बुध, अंगारक, इन्द्र, विवस्वान्, दीप्तांशु, शुचि, शौरि, शनैश्चर, ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, स्कंद, वैश्रवण, यम, वैद्युत, जाठर, अग्नि, इंधन, तेजसांपति, धर्मध्वज, वेदकर्ता, वेदांग, वेदवहन, कृत, त्रेता, द्वापार, कलि, सर्वामराश्रय, कला, काष्ठा, मुहूर्त, क्षपा, याम, क्षण, संवत्सरकर, अश्वत्थ, कालचक्र, विभावसु, पुरुष, शाश्वत, योगी, व्यक्ताव्यक्त, सनातन, कालाध्यक्ष, प्रजाध्यक्ष, विश्वकर्मा, तमोनुद, वरुण, सागरांश, जीमूत, जीवनोऽरिहा, भूताश्रय, भूतपतिः, सर्वलोक नमस्कृत, स्त्रष्टा, संवर्तक, वह्नी, सर्वादि, अलोलुप, अनंत, कपिल, भानु, कामद, सर्वतोमुख, शय, विशाल, वरद, सर्वधातु, निषेचक, मन, सुपर्ण, भूतादि, शीघ्रगामी, प्राणधारक, धन्वन्तरी, धूमकेतू, आदिदेव, अदितीसुत, द्वादशात्मा, अरविंदाक्ष, पिता, माता, पितामह, स्वर्गद्वार, प्रजाद्वार, मोक्षद्वार, त्रिविष्टप, देहकर्ता, प्रशांतात्मा, विश्वात्मा, विश्वतोमुख, चराचरात्मा, सूक्षात्मा व मित्रदेवाचा मित्र. स्वतः ब्रह्मदेवाने त्या अफाट तेजस्वी सूर्याची ही एकशेआठ पुण्यकारक नावे सांगितली. ती याप्रमाणे म्हणावीत. देव, पितर, यक्ष ज्याची सेवा करीत आहेत, राक्षस, निशाचर, सिद्ध ज्याला वंदन करतात, अग्निप्रमाणे सुवर्णकांति असलेल्या भास्कराला मी (माझे) कल्याण करावे म्हणून नमस्कार करीत आहे. सूर्योदयाच्या वेळेला जो याचे पठण करील त्याला मुले, स्त्री व धन लाभेल. तसेच याचे स्मरण केले तर त्या मनुष्याला धृति व मेधा सदैव मिळतील. हे सूर्यस्तोत्र शुद्ध व पवित्र होऊन वाचल्याने शोक, दव, अग्नि, सागर यांच्यापासून भयमुक्त होऊन इच्छिलेले प्राप्त होईल.
अशाप्रकारे महाभारतांतील सूर्याच्या एकशेआठ नावांचे स्तोत्र संपूर्ण झाले.
ShriHanumadAshtakam ShriHanumadAshtakam is in Sanskrit. It is composed by a Swami while he was in Nasik and visiting the temples in Nasik. He visited a Hanuman temple and created this beautiful stotra.
श्रीहनुमदष्टकम्
वेगेन जनकाच्छ्रेष्ठस्त्विंद्रादिभ्यो बलेन च ।
धिया वाचस्पतेः श्रेष्ठो यस्तं नौमि मरुत्सुतम् ॥ १ ॥
समुद्रलंघनं सीताभयदानं तु रक्षसः ।
बलनाशं तु कः कुर्यादेकं मारुतिमंतरा ॥ २ ॥
संहारो न विनारुद्रं यतो रामसहायकृत् ।
कपिव्याजात्तु रुद्रवतारो मां पातु मारुतिः ॥ ३ ॥
यज्ज्ञानं यस्य वैराग्यं यद्भक्तिर्यद्बलं यशः ।
कः शक्तो भूतले वक्तुं तं वंदे मारुतात्मजम् ॥ ४ ॥
किं तेनरा वानरा वा येषां ख्यातिर्न भूतले ।
आरंकमानृपं ख्यातो यस्तं वंदे मरुत्सुतम् ॥ ५ ॥
अंजनी जननी यस्य पिताचाकाशसंभवः ।
साक्षाद्धरिः सखा यस्य स कपीशः श्रिये मम ॥ ६ ॥
कर्ता यो व्याकरणस्य बाल्ये फलधिया रविम् ।
ग्रसितुं यो प्रवृत्तो भूत्तं वंदे मारुतात्मजम् ॥ ७ ॥
हिंदी अनुवाद ( धन्यवाद सहित देवीस्तोत्ररत्नाकर गीताप्रेस, गोरखपुर ) १) अम्ब ! अमृतसे परिपूर्ण कल्याणकी वर्षा करनेवाली एवं लक्ष्मीको स्वयं वरण करनेवाली मंगलमयी दीपमालाकी भॉंति आपकी सेवाओंने आपके चरणकमलोंमें भक्तिभाव रखनेवाले मनुष्योंके मनमें क्या नहीं कर दिया? अर्थात् उनके समस्त मनोरथोंको पूर्ण कर दिया । २) जननि ! मेरी तो बस यही स्पृहा है कि परमोत्कृष्ट सुधासे परिप्लुत तथा उदीयमान अरुणवर्ण सूर्यकी समता करनेवाले आपके अरुण श्रीविग्रहके संनिकट पहुँचकर आपकी वन्दनाओंके समय मेरे नेत्र अश्रुजलसे परिपूर्ण हो जायँ । ३) मॉं ! प्रभुत्वभावसे कलुषित ब्रह्मा आदि कितने देवता हो चुके हैं जो प्रत्येक युगमें प्रलयसे अभिभूत ( विनष्ट ) हो गये है, किंतु एक वही व्यक्ति स्थिरसिद्धियुक्त विद्यमान रहता है, जो एक बार आपके चरणोंमे प्रणाम कर लेता है । ४) त्रिपुरसुन्दरि ! आपमें भक्तिभाव रखनेवाले भक्तजन एक बार भी आपके करुणासे अंकुरित सुशोभन कटाक्षको पाकर कामदेवसदृश सौन्दर्यशाली हो जाते हैं और त्रिभुवनमें युवतियोंको सम्मोहित कर लेते हैं । ५) त्रिकोणमें निवास करनेवाली एवं तीन नेत्रोंसे सुशोभित माता त्रिपुरसुन्दरि ! वेद ' हृीं ' कारको ही आपका नाम बतलाते है । वह नाम जिनके संस्मरणमें आ गया, वे भक्तजन यमदूतोंके भयको त्यागकर लोकपालोंके साथ नन्दनवनमें क्रीडा करते हैं । ६) माता ! निरन्तर अमृतसे परिलुप्त होनेके कारण शीतल बने हुए आपके शरीरका यह अर्धभाग जिनके साथ संलग्न था, उन त्रिपुरहन्ता शंकरजीके गलेमें भरा हुआ हलाहल विषका वेग उनके लिये अनिष्टकारक कैसे होता? ७) देवि ! आपके चरणकमलोंमें किया हुआ प्रणाम सर्वज्ञता और वाक्-चातुर्य तो उत्पन्न करता ही है, साथ ही उद्भासित मुकुट, श्वेत छत्र, दो चामर और विशाल पृथ्वीका साम्राज्य भी प्रदान करता है । ८) मॉं त्रिपुरसुन्दरि ! मैं आपकी ही भक्तिसे परिपूर्ण हूँ और आपकी ओर ही दृष्टि लगाये हुए हूँ, अतः आप मुझ अनाथकी ओर मनोरथोंको पूर्ण करनेमें कल्पवृक्षसदृश एवं करुणासागर स्वरुप अपने कटाक्षोंसे देख तो लें । ९) देवि ! खेद है कि अन्यान्य जन आपके अतिरिक्त अन्य साधारण देवताओंमें भी मन लगाकर उनकी भक्ति करते हैं, किंतु मैं मन और वचनसे आपका ही स्मरण करता हूँ, आपको ही प्रणाम करता हूँ; क्योंकि जगत्में आप ही शरणदात्री हैं । १०) त्रिपुरसुंदरि ! यद्यपि आपके नेत्रोंके लिये देखनेके बहुत-से लक्ष्य वर्तमान हैं, तथापि किसी प्रकार आप मेरी और दृष्टि डाल दें, क्योंकि निश्चय ही मेरे समान करुणाका पात्र न कोई पैदा हुआ है, न हो रहा है और न पैदा होगा । ११) त्रिपुरमें निवास करनेवाली मॉं ! हृीं, हृीं इस प्रकार ( आपके बीजमन्त्रका ) प्रतिदिन जप करनेवाले मनुष्योंके लिये इस जगत् में क्या दुर्लभ है ? माला, किरीट और उन्मत्त गजराजसे युक्त उन माननीयोंकी तो स्वयं मधुमती लक्ष्मी सेवा करती हैं । १२) कमलनयनि ! आपकी वन्दनाएँ सम्पत्ति प्रदान करनेवाली, समस्त इन्द्रियोंको आनन्दित करनेवाली, साम्राज्य प्रदान करनेमें कुशल और पापसमूहको नष्ट करनेमें उद्यत रहनेवाली हैं, मातः ! वे निरन्तर मुझे ही प्राप्त हों, दूसरेको नहीं । १३) कल्पके उपसंहारके समय ताण्डव नृत्य करनेवाले खण्डपरशु देवाधिदेव परमेश्र्वर शंकरके लिये पाश, अंकुश, ईखका धनुष और पुष्पबाणको धारण करनेवाली आपकी वह एकमात्र मूर्ति साक्षीरुपसे सुशोभित हैं । १४) मातः ! आपका यह अर्धांग जो परम तेजोमय, अत्याधिक कुंकुमपंकसे युक्त होनेके कारण अरुण, चमकदार किरीटसे सुशोभित, चन्द्रकलासे विभूषित, अमृतसे परमार्द्र और त्रिकोणके मध्यमें प्रकट है, सदा शिवजीसे संलग्न रहे । १५) कमलपर निवास करनेवाली सुन्दरि ! ' हृीं ' कार ही आपका धाम है, वही आपका रुप है, वही आपका नाम है और वही आपके तेजसे उत्पन्न हुए आकाशादिसे क्रमशः परिणत - जगत् का आदिकारण है, जो ब्रह्मा, विष्णु आदिकी रचित-पालित वस्तु बनकर परम सुख देता हैं ।
१६) मातः ! जो मन्त्रज्ञ तीन ' हृीं ' कारसे सम्पुटित महान् मन्त्रसे संदीपित इस स्तोत्रका प्रतिदिन आपके समक्ष जप करता है, राजालोग उसके वशीभूत हो जाते है, उसकी वाणी निर्मल सूक्तियोंसे परिपूर्ण हो जाती है और वह दीर्घायु हो जाता है ।
YognidropaDishtam ShriKrishna Kavacham YognidropaDishtam ShriKrishna Kavacham is in Sanskrit. It is from Brahmavaivarta Purana. This Kavacham was very long back given to Yogamaya while there was a war between her and demon Shumba. Because of the power of this Kavacham Shumbha fell down on the earth and killed by Goddess. Now Yoganidra is giving this kavacham to god Brahma who was very afraid when Demon Madhu and Kaitabha were frightening him. After receiving this kavacham God Brahma became fearless.
This Kavacham is to be kept in a gold box and either wears it around the neck or around right arm. There will be no fear from enemy, serpent, fire or poison. God Shrikrishna protects the devotee even in sleep.
योगनिद्रयोपदिष्टं श्रीकृष्णकवचम्
योगनिद्रोवाच
दूरीभूतं कुरु भयं भयं किं ते हरौ स्थिते ।
स्थितायां मयि च ब्रह्मन् सुखं तिष्ठ जगत्पते ॥ १ ॥
श्रीहरिः पातु ते वक्त्रं मस्तकं मधुसूदनः ।
श्रीकृष्णश्र्चक्षुषी पातु नासिकां राधिकापतिः ॥ २ ॥
कर्णयुगं च कण्ठं च कपालं पातु माधवः ।
कपोलं पातु गोविन्दः केशांश्र्च केशवः स्वयम् ॥ ३ ॥
अधरौष्ठं हृषीकेशो दन्तपंक्तिं गदाग्रजः ।
रासेश्र्वरश्र्च रसनां तालुकं वामनो विभुः ॥ ४ ॥
वक्षः पातु मुकुन्दस्ते जठरं पातु दैत्यहा ।
जनार्दनः पातु नाभिं पातु विष्णुश्र्च ते हनुम् ॥ ५ ॥
नितम्बयुग्मं गुह्यं च पातु ते पुरुषोत्तमः ।
जानुयुग्मं जानकीशः पातु ते सर्वदा विभुः ॥ ६ ॥
हस्तयुग्मं नृसिंहश्र्च पातु सर्वत्र सङ्कटे ।
पादयुग्मं वराहश्र्च पातु ते कमलोद्भवः ॥ ७ ॥
ऊर्ध्वं नारायणः पातु ह्यधस्तात् कमलापतिः ।
पूर्वस्यां पातु गोपालः पातु वह्नौ दशास्यहा ॥ ८ ॥
वनमाली पातु याम्यां वैकुण्ठः पातु नैर्ऋतौ ।
वारुण्यां वासुदेवश्र्च सतो रक्षाकरः स्वयम् ॥ ९ ॥
पातु ते संततमजो वायव्यां विष्टरश्रवाः ।
उत्तरे च सदा पातु तेजसा जलजासनः ॥ १० ॥
ऐशान्यामीश्र्वरः पातु सर्वत्र पातु शत्रुजित् ।
जले स्थले चान्तरिक्षे निद्रायां पातु राघवः ॥ ११ ॥
इत्येवं कथितं ब्रह्मन् कवचं परमाद्भुतम् ।
कृष्णेन कृपया दत्तं स्मृतेनैव पुरा मया ॥ १२ ॥
शुम्भेन सह संग्रामे निर्लक्ष्ये घोरदारुणे ।
गगने स्थितया सद्यः प्राप्तिमात्रेण सो जितः ॥ १३ ॥
कवचस्य प्रभावेण धरण्यां पतितो मृतः ।
पूर्वं वर्षशतं खे च कृत्वा युद्धं भयावहम् ॥ १४ ॥
मृते शुम्भे च गोविन्दः कृपालुर्गगनस्थितः ।
माल्यं च कवचं दत्त्वा गोलोकं स जगाम ह ॥ १५ ॥
कल्पान्तरस्य वृत्तान्तं कृपया कथितं मुने ।
अभ्यन्तरभयं नास्ति कवचस्य प्रभावतः ॥ १६ ॥
कोटिशः कोटिशो नष्टा मया दृष्टाश्र्च वेधसः ।
अहं च हरिणा सार्धं कल्पे कल्पे स्थिरा सदा ॥१७ ॥
इत्युक्त्वा कवचं दत्त्वा सान्तर्धानं चकार ह ।
निःशङ्को नाभिकमले तस्थौ स कमलोद्भवः ॥ १८ ॥
सुवर्णगुटिकायां तु कृत्वेदं कवचं परम् ।
कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ बध्नीयाद् यः सुधीः सदा ॥ १९ ॥
विषाग्निसर्पशत्रुभ्यो भयं तस्य न विद्यते ।
जले स्थले चान्तरिक्षे निद्रायां रक्षतीश्र्वरः ॥ २० ॥
मराठी अर्थ योगनिद्रा म्हणाली ब्रह्मन् तुम्ही भिवु नका. हे जगत्पते ! ज्याठिकाणी मी आणि श्रीहरि विराजमान आहेत, तेथे भय कसले? तुम्ही सुखाने रहा. आता कवच सुरु होते. श्रीहरि तुमच्या मुखाचे रक्षण करो. मधुसूदन डोक्याचे, श्रीकृष्ण दोन्ही डोळ्यांचे, तसेच राधिकापति नाकाचे रक्षण करो. माधव दोन्ही कानांची, कण्ठाची आणि कपाळाची रक्षा करो. कपोलाची गोविन्दआणि केसांची स्वतः केशव रक्षा करो. हृषीकेश अधरोष्ठांची गदाग्रज दन्तपंक्तिची, रासेश्र्वर जीभेची आणि भगवान वामन ताळुचे रक्षण करो. मुकुन्द तुमच्या वक्षःस्थळाचे रक्षण करो. दैत्यसूदन तुमच्या पोटाचे रक्षण करो. जनार्दन नाभीचे व विष्णु ठोढीचे रक्षण करो. पुरुषोत्तम दोन्ही नितम्बांचे आणि गुप्तांगाचे रक्षण करो. भगवान जानकीश्र्वर तुमच्या गुडघ्यांचे नेहमी रक्षण करो. नृसिंह सर्वत्र संकटांत दोन्ही हातांचे आणि कमलोद्भव वराह दोन्ही पायांचे रक्षण करो. वरच्या उर्ध्वेला नारायण आणि खाली अधरेला कमलापति तुमचे रक्षण करो. पूर्वेला गोपाल तुमचे रक्षण करोत. आग्नेयेला रावणास मारणारा श्रीराम तुमची रक्षा करो. दक्षिणेला वनमाळी, नैऋत्येला वैकुण्ठ तसेच पश्र्चिमेला सत्पुरुषांचे रक्षण करणारे स्वतः वासुदेव तुमचे रक्षण करोत. वायव्येला अजन्मा विष्टरश्रवा श्रीहरि नेहमी तुमचे रक्षण करोत. उत्तरेला कमलासन ब्रह्मा आपल्या तेजाने नेहमी तुमचे रक्षण करोत. ईशान्येला ईश्र्वर रक्षण करोत. शत्रुजीत सर्वत्र रक्षण करोत. जल, थल आणि आकाश व निद्रेमध्ये श्रीरघुनाथ रक्षण करोत. हे ब्रह्मन् ! अशाप्रकारे या कवचाचे वर्णन केले गेले आहे. फार पूर्वी मी स्मरण केल्यावर भगवान श्रीकृष्णांनी माझ्यावर कृपाकरुन हे मला दिले होते. शुम्भाबरोबर जेव्हां घोर युद्ध चालू होते तेव्हां हे कवच प्राप्त होताच तत्काल मी शुम्भाला पराजीत केले. या कवचाच्या प्रभावाने शुम्भ जमिनीवर पडला आणि मेला. शेकडो वर्षे भयंकर युद्ध करुन शुम्भ जेव्हां मेला तेव्हा भगवान गोविन्द कवच व माला देऊन गोलाकांत निघून गेले.
हे मुने ! अशा प्रकारे कल्पातरांचा वृत्तांत सांगितला गेला आहे. या कवचाच्या प्रभावाने मनांत कधीही भय निर्माण होत नाही. मी प्रत्येक कल्पांत श्रीहरिंच्या बरोबर राहून करोडो ब्रह्मांडे नष्ट होतांना बघितली आहेत. असे सांगून व कवच देऊन देवी योगनिद्रा अंतर्धान पावली. आणि कमलोद्भव ब्रह्मा भगवान् विष्णुंच्या नाभिकमळामध्ये निःशंक होऊन विराजमान झाले. जो हे कवच सोन्याच्या (लहान) पेटींत ठेवून गळ्यांत किंवा उजव्या दंडावर धारण करतो त्याची बुद्धि नेहमी शुद्ध रहाते. तसेच विष, अग्नि, सर्प आणि शत्रु यांपासून कधिही भिती वाटत नाही. जमीन, पाणि व आकाशामध्ये तसेच निद्रावस्थेमध्ये भगवान् स्वतः त्याचे रक्षण करतात.
VipraPatniKrutam ShriKrishna Stotram VipraPatniKrutam ShriKrishna Stotram is in Sanskrit. It is from ShreeBrhmavaivart Purana, ShriKrishna JanmaKhanda Adhyay 18/36-48.
विप्रपत्नीकृतं श्रीकृष्णस्तोत्रम्
विप्रपत्न्य ऊचुः
त्वं ब्रह्म परमं धाम निरीहो निरहंकृतिः ।
निर्गुणश्र्च निराकारः साकारः सगुणः स्वयम् ॥ १ ॥
साक्षिरुपश्र्च निर्लिप्तः परमात्मा निराकृतिः ।
प्रकृतिः पुरुषस्त्वं च कारणं च तयोः परम् ॥ २ ॥
सृष्टिस्थित्यन्तविषये ये च देवास्त्रयः स्मृताः ।
ते त्वदंशाः सर्वबीजा ब्रह्मविष्णुमहेश्र्वराः ॥ ३ ॥
यस्य लोम्नां च विवरे चाखिलं विश्र्वमीश्र्वर ।
महाविराड् महाविष्णुस्त्वं तस्य जनको विभो ॥ ४ ॥
तेजस्त्वं चापि तेजस्वी ज्ञानं ज्ञानी च तत्परः ।
वेदेऽनिर्वचनीयस्त्वं कस्त्वां स्तोतुमिहेश्र्वरः ॥ ५ ॥
महदादि सृष्टिसूत्रं पञ्चतन्मात्रमेव च ।
बीजं त्वं सर्वशक्तीनां सर्वशक्तिस्वरुपकः ॥ ६ ॥
सर्वशक्तिश्र्वरः सर्वः सर्वशक्त्याश्रयः सदा ।
त्वमनीहः स्वयंज्योतिः सर्वानन्दः सनातनः ॥ ७ ॥
अहोऽप्याकारहीनस्त्वं सर्वविग्रहवानपि ।
सर्वेन्द्रियाणां विषयं जानासि नेन्द्रियी भवान् ॥ ८ ॥
सरस्वती जडीभूता यत्स्तोत्रे यन्निरुपणे ।
जडीभूतो महेशश्र्च शेषो धर्मो विधिः स्वयम् ॥ ९ ॥
पार्वती कमला राधा सावित्री वेदसूरपि ।
वेदश्र्च जडतां याति के वा शक्ता विपश्र्चितः ॥ १० ॥
मराठी अर्थ ब्राह्मणस्त्रिया म्हणाल्या भगवान ! आपण स्वतः परब्रह्म, परमधाम, निरीह, अहंकाररहीत, निर्गुण-निराकार तसेच सगुण-साकार आहात. आपण सर्वसाक्षी,निर्लेप म्हणजेच आकाररहित, परमात्मा आहात. प्रकृति व पुरुष आपणच आहात. तसेच त्या दोन्हीचे परम कारण आहात. सृष्टी निर्मिती, पालन व संहार यासाठी नियुक्त जे ब्रह्मा, विष्णु व महेश या तीन देवता सांगितल्या आहेत, त्या पण आपल्या सर्व बीजमय अंशरुपी आहेत. परमेश्र्वरा ! ज्या रोमकूपामध्ये संपूर्ण विश्र्व आहे ते महाविराट् महाविष्णु यांचे पिता आपणच आहात. आपणच तेज व तेजस्वी, ज्ञान व ज्ञानी आहात, व त्यापलीकडे आहात. वेदामध्ये आपण अनिर्वचनीय आहात असे म्हटले आहे. मग आपली स्तुती कोण बरे करु शकेल? सृष्टीचे सूत्रभूत जे तत्व, पाच तन्नमात्रा आहेत त्या आपल्यापासून भन्न नाहीत. आपण सर्व शक्तिंचे बीज व सर्वशक्तिस्वरुप आहात. सर्वशक्तिंचे ईश्र्वर, सर्वरुप, तसेच सर्वशक्तींचे आश्रयस्थान आहात. आपण निरीह, स्वयंप्रकाश, सर्वानन्दमय तसेच सनातन आहात. अहो आकारहीन असूनही आपण सर्व आकारांनीयुक्त आहात, सर्व आकार आपलेच आहेत. आपण सर्व इन्द्रियांचे विषय जाणता तरीसुद्धा इंद्रियवान नाही. ज्यांची स्तुती करण्यास सरस्वती दमते, महेश्र्वर, शेषनाग, धर्म व स्वतः विधाता दमतात, पार्वती, लक्ष्मी, राधा तसेच वेदमाता सावित्री आपली स्तुती करता करता मुक झाल्या मग दुसरा कोण विद्वान आपली स्तुती करु शकेल. हे प्राणेश्र्वरा ! तेथेआम्ही स्त्रीया आपली काय स्तुती करु शकणार ? देवा आमच्यावर प्रसन्न व्हा. दिनबंधो ! आमच्यावर कृपा करा. असे म्हणून ब्राह्मणस्त्रीया श्रीकृष्णाच्या पदकमलावर पडून राहील्या. तेव्हा श्रीकृष्णांनी त्यांना प्रसन्नमुखाने व डोळ्यांनी अभय दिले.
जो पूजेच्यावेळी ब्राह्मणस्त्रीयांनी केलेल्या या स्तोत्राचा पाठ करतो त्याला त्या स्त्रीयांना मिळालेली गती म्हणजेच मोक्ष मिळतो. यांत संशय नाही.