Friday, August 26, 2016

Kalyanvrushti Stotram कल्याणवृष्टि स्तोत्रम्


Kalyanvrushti Stotram 
Kalyanvrushti Stotram is in Sanskrit. It is composed by P.P.Aadi Shankarcharya.
कल्याणवृष्टि स्तोत्रम्
कल्याणवृष्टिभिरिवामृतपूरिताभि-
र्लक्ष्मीस्वयंवरणमङ्गलदिपिकाभिः ।
सेवाभिरम्ब तव पादसरोजमूले
नाकारि किं मनसि भक्तिमतां जनानाम् ॥ १ ॥
एतावदेव जननि स्पृहणीयमास्ते 
त्वद्वन्दनेषु सलिलस्थगिते च नेत्रे ।
सांनिध्यमुद्यदरुणायतसोदरस्य 
त्वद्विग्रहस्य सुधया परयाप्लुतस्य ॥ २ ॥
ईशित्वभावकलुषाः कति नाम सन्ति 
ब्रह्मादयः प्रतियुगं प्रलयाभिभूताः ।
एकः स एव जननि स्थिरसिद्धिरास्ते 
यः पादयोस्तव सकृत् प्रणतिं करोति ॥ ३ ॥
लब्ध्वा सकृत् त्रिपुरसुन्दरि तावकीनं 
कारुण्यकन्दलितकान्तिभरं कटाक्षम् ।
कन्दर्पभावसुभगास्त्वयि भक्तिभाजः 
सम्मोहयन्ति तरुणीर्भुवनत्रयेषु ॥ ४ ॥
हृींकारमेव तव नाम गृणन्ति वेदा 
मातस्त्रिकोणनिलये त्रिपुरे त्रिनेत्रे ।
यत्संस्मृतौ यमभटादिभयं विहाय 
दीव्यन्ति नन्दनवने सह लोकपालैः ॥ ५ ॥ 
हन्तुः पुरामधिगलं परिपूर्यमाणः 
क्रूरः कथं नु भविता गरलस्य वेगः ।
आश्वासनाय किल मातरिदं तवार्थं 
देहस्य शश्वदमृताप्लुतशीतलस्य ॥ ६ ॥
सर्वज्ञतां सदसि वाक्पटुतां प्रसूते 
देवि त्वदङ्घ्रिसरसीरुहयोः प्रणामः ।
किं च स्फुरन्मुकुटज्ज्वलमातपत्रं 
द्वे चामरे च वसुधां महतीं ददाति ॥ ७ ॥
कल्पद्रुमैरभिमतप्रतिपादनेषु 
कारुण्यवारिधिभिरम्ब भवत्कटाक्षैः।
आलोकय त्रिपुरसुन्दरि मामनाथं 
त्वय्यैव भक्तिभरितं त्वयि दत्तदृष्टिम् ॥ ८ ॥   
हन्तेतरेष्वपि मनांसि निधाय चान्ये 
भक्तिं वहन्ति किल पामरदैवतेषु ।
त्वामेव देवि मनसा वचसा स्मरामि 
त्वामेव नौमि शरणं जगति त्वमेव ॥ ९ ॥
लक्ष्येषु सत्स्वपि तवाक्षिविलोकनाना-
मालोकय त्रिपुरसुन्दरि मां कथंचित् ।
नूनं मयापि सदृशं करुणैकपात्रं 
जातो जनिष्यति जनो न च जायते च ॥ १० ॥
हृीं हृीमिति प्रतिदिनं जपतां जनानां 
किं नाम दुर्लभमिह त्रिपुराधिवासे ।
मालाकिरीटमदवारणमाननीयां-
स्तान् सेवते मधुमती स्वयमेव लक्ष्मीः ॥ ११ ॥
सम्पत्कराणि सकलेन्द्रियनन्दनानि 
साम्राज्यदानकुशलानि सरोरुहाक्षि ।
त्वद्वन्दनानि दुरितौघहरोद्यतानि 
मामेव मातरनिशं कलयन्तु नान्यम् ॥ १२ ॥
कल्पोपसंहरणकल्पितताण्डवस्य 
देवस्य खण्डपरशोः परमेश्वरस्य ।
पाशाङ्कुशैक्षवशरासनपुष्पबाणा
सा साक्षिणी विजयते तव मूर्तिरेका ॥ १३ ॥
लग्नं सदा भवतु मातरिदं तवार्धं 
तेजः परं बहुलकुङ्कुमपङ्कशोणम् ।
भास्वत्किरीटममृतांशुकलावतंसं 
मध्ये त्रिकोणमुदितं परमामृतार्द्रम् ॥ १४ ॥
हृींकारमेव तव धाम तदेव रुपं 
त्वन्नाम सुन्दरि सरोजनिवासमूले ।
त्वत्तेजसा परिणतं वियदादिभूतं 
सौख्यं तनोति सरसीरुहसम्भवादेः ॥ १५ ॥     
हृींकारत्रयसम्पुटेन महता मन्त्रेण संदीपितं 
स्तोत्रं यः प्रतिवासरं तव पुरो मातर्जपेन्मन्त्रवित् ।
तस्य क्षोणिभुजो भवन्ति वशगा लक्ष्मीश्चिरस्थायिनी 
वाणी निर्मलसूक्तिभारभरिता जागर्ति दीर्घं वयः ॥ १६ ॥
॥ इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं कल्याणवृष्टिस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
हिंदी अनुवाद ( धन्यवाद सहित देवीस्तोत्ररत्नाकर गीताप्रेस, गोरखपुर )
१) अम्ब ! अमृतसे परिपूर्ण कल्याणकी वर्षा करनेवाली एवं लक्ष्मीको स्वयं वरण करनेवाली मंगलमयी दीपमालाकी भॉंति आपकी सेवाओंने आपके चरणकमलोंमें भक्तिभाव रखनेवाले मनुष्योंके मनमें क्या नहीं कर दिया? अर्थात् उनके समस्त मनोरथोंको पूर्ण कर दिया । 
२) जननि ! मेरी तो बस यही स्पृहा है कि परमोत्कृष्ट सुधासे परिप्लुत तथा उदीयमान अरुणवर्ण सूर्यकी समता करनेवाले आपके अरुण श्रीविग्रहके संनिकट पहुँचकर आपकी वन्दनाओंके समय मेरे नेत्र अश्रुजलसे परिपूर्ण हो जायँ ।
३) मॉं ! प्रभुत्वभावसे कलुषित ब्रह्मा आदि कितने देवता हो चुके हैं जो प्रत्येक युगमें प्रलयसे अभिभूत ( विनष्ट ) हो गये है, किंतु एक वही व्यक्ति स्थिरसिद्धियुक्त विद्यमान रहता है, जो एक बार आपके चरणोंमे प्रणाम कर लेता है ।
४) त्रिपुरसुन्दरि ! आपमें भक्तिभाव रखनेवाले भक्तजन एक बार भी आपके करुणासे अंकुरित सुशोभन कटाक्षको पाकर कामदेवसदृश सौन्दर्यशाली हो जाते हैं और त्रिभुवनमें युवतियोंको सम्मोहित कर लेते हैं ।
५) त्रिकोणमें निवास करनेवाली एवं तीन नेत्रोंसे सुशोभित माता त्रिपुरसुन्दरि ! वेद ' हृीं ' कारको ही आपका नाम बतलाते है । वह नाम जिनके संस्मरणमें आ गया, वे भक्तजन यमदूतोंके भयको त्यागकर लोकपालोंके साथ नन्दनवनमें क्रीडा करते हैं ।
६) माता ! निरन्तर अमृतसे परिलुप्त होनेके कारण शीतल बने हुए आपके शरीरका यह अर्धभाग जिनके साथ संलग्न था, उन त्रिपुरहन्ता शंकरजीके गलेमें भरा हुआ हलाहल विषका वेग उनके लिये अनिष्टकारक कैसे होता? 
७) देवि ! आपके चरणकमलोंमें किया हुआ प्रणाम सर्वज्ञता और वाक्-चातुर्य तो उत्पन्न करता ही है, साथ ही उद्भासित मुकुट, श्वेत छत्र, दो चामर और विशाल पृथ्वीका साम्राज्य भी प्रदान करता है ।
८) मॉं त्रिपुरसुन्दरि ! मैं आपकी ही भक्तिसे परिपूर्ण हूँ और आपकी ओर ही दृष्टि लगाये हुए हूँ, अतः आप मुझ अनाथकी ओर मनोरथोंको पूर्ण करनेमें कल्पवृक्षसदृश एवं करुणासागर स्वरुप अपने कटाक्षोंसे देख तो लें ।
९) देवि ! खेद है कि अन्यान्य जन आपके अतिरिक्त अन्य साधारण देवताओंमें भी मन लगाकर उनकी भक्ति करते हैं, किंतु मैं मन और वचनसे आपका ही स्मरण करता हूँ, आपको ही प्रणाम करता हूँ; क्योंकि जगत्में आप ही शरणदात्री हैं ।
१०) त्रिपुरसुंदरि ! यद्यपि आपके नेत्रोंके लिये देखनेके बहुत-से लक्ष्य वर्तमान हैं, तथापि किसी प्रकार आप मेरी और दृष्टि डाल दें, क्योंकि निश्चय ही मेरे समान करुणाका पात्र न कोई पैदा हुआ है, न हो रहा है और न पैदा होगा ।
११) त्रिपुरमें निवास करनेवाली मॉं ! हृीं, हृीं इस प्रकार ( आपके बीजमन्त्रका ) प्रतिदिन जप करनेवाले मनुष्योंके लिये इस जगत् में क्या दुर्लभ है ? माला, किरीट और उन्मत्त गजराजसे युक्त उन माननीयोंकी तो स्वयं मधुमती लक्ष्मी सेवा करती हैं ।
१२) कमलनयनि ! आपकी वन्दनाएँ सम्पत्ति प्रदान करनेवाली, समस्त इन्द्रियोंको आनन्दित करनेवाली, साम्राज्य प्रदान करनेमें कुशल और पापसमूहको नष्ट करनेमें उद्यत रहनेवाली हैं, मातः ! वे निरन्तर मुझे ही प्राप्त हों, दूसरेको नहीं ।
१३) कल्पके उपसंहारके समय ताण्डव नृत्य करनेवाले खण्डपरशु देवाधिदेव परमेश्र्वर शंकरके लिये पाश, अंकुश, ईखका धनुष और पुष्पबाणको धारण करनेवाली आपकी वह एकमात्र मूर्ति साक्षीरुपसे सुशोभित हैं ।  
१४) मातः ! आपका यह अर्धांग जो परम तेजोमय, अत्याधिक कुंकुमपंकसे युक्त होनेके कारण अरुण, चमकदार किरीटसे सुशोभित, चन्द्रकलासे विभूषित, अमृतसे परमार्द्र और त्रिकोणके मध्यमें प्रकट है, सदा शिवजीसे संलग्न रहे ।
१५) कमलपर निवास करनेवाली सुन्दरि ! ' हृीं ' कार ही आपका धाम है, वही आपका रुप है, वही आपका नाम है और वही आपके तेजसे उत्पन्न हुए आकाशादिसे क्रमशः परिणत - जगत् का आदिकारण है, जो ब्रह्मा, विष्णु आदिकी रचित-पालित वस्तु बनकर परम सुख देता हैं ।

१६) मातः ! जो मन्त्रज्ञ तीन ' हृीं  ' कारसे सम्पुटित महान् मन्त्रसे संदीपित इस स्तोत्रका प्रतिदिन आपके समक्ष जप करता है, राजालोग उसके वशीभूत हो जाते है, उसकी वाणी निर्मल सूक्तियोंसे परिपूर्ण हो जाती है और वह दीर्घायु हो जाता है ।  
Kalyanvrushti Stotram
कल्याणवृष्टि स्तोत्रम्


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