ShriGangaShtakam
ShriGanagashtakam is in Sanskrit. It is a beautiful creation of Param Poojya Shankaracharya. It is stuti of Ganga Mata. Ganga is a very pious river in India. Ganga is Papavinashini, i.e. it removes the sins of a devotee who take a bath in Ganga. People don’t ask for anything when they touches Ganga. Even they don’t desire for Indrapad.
श्रीगङ्गाष्टकम्
भगवति तव तीरे नीरमात्राशनोऽहं
विगतविषयतृष्णः कृष्णमाराधयामि ।
सकलकलुषभङ्गे स्वर्गसोपानसङ्गे
तरलतरतरङ्गे देवि गङ्गे प्रसीद ॥ १ ॥
हिंदीमे अनुवाद
१) हे देवि (गंगे) ! तुम्हारे तीरपर केवल तुम्हाराजलपान करता हुआ, विषय तृष्णासे रहित हो, मै श्रीकृष्णकी आराधना करुं । हे सकल पापविनाशिनी, स्वर्ग-सोपानरुपिणि ! तरलतरङ्गिणी ! देवि गंगे ! मुझपर प्रसन्न हो ।
भगवति भवलीलामौलिमाले तवाम्भः-
कणमणुपरिमाणं प्राणिनो ये सृशन्ति ।
अमरनगरनारीचामरग्राहिणीनां
विगतकलिकलङ्कातङ्कमङ्के लुठन्ति ॥ २ ॥
२) हे भगवति ! तुम महादेवजीके मस्तककी लीलामयी माला हो, जो प्राणी तुम्हारे जलकणके अणुमात्रको भी स्पर्श करते हैं, वे कलिकलङ्कके भयको त्यागकर, देवपुरीकी चँवरधारिणी अप्सराओंकी गोदमें शयन करते हैं ।
ब्रह्माण्डं खण्डयन्ती हरशिरसि जटावल्लिमुल्लासयन्ती
स्वर्लोकादापतन्ती कनकगरिगुहागण्डशैलात्स्खलन्ती ।
क्षोणीपृष्ठे लुठन्ती दुरितचयचमूर्निर्भरं भर्त्सयन्ती
पाथोधिं पूरयन्ती सुरनगरसरित्पावनी नः पुनातु ॥ ३ ॥
३) ब्रह्माण्डको फोडकर निकलनेवाली, महादेवजीकी जटा-लताको उल्लसित करती हुई, स्वर्गलोकसे गिरती हुई, सुमेरुकी गुफा और पर्वतमालासे झडती हुई, पृथ्वीपर लोटती हुई, पपसमुहकी सेनाको कडी फटकार देती हुई, समुद्रको भरती हुई, देवपुरीकी पवित्र नदी गंगा हमें पवित्र करे ।
मज्जन्मातङ्गकुम्भच्युतमदमदिरामोदमत्तालिजालं
स्नानैः सिद्धाङ्गनानां कुचयुगविगलत्कुङ्कुमासङ्गपिङ्गम् ।
सायंप्रातर्मुनीनां कुशकुसुमचयैश्छन्नतीरस्थानीरं
पायान्नो गाङ्गमम्भः करिकलभकराक्रान्तरंहस्तरङ्गम् ॥ ४ ॥
४) स्नान करते हुए हाथियोंके कुम्भस्थलसे झरते हुए मदरुपी मदिराकी गन्धके कारण मधुपवृन्द जिससे मतवाले हो रहे हैं, सिद्धोंकी स्त्रियोंके स्तनोंसे बहे हुए कुकुंमके मिलनेसे जो पिंगलवर्ण हो रहा है तथा सायं-प्रातः मुनियोंद्वारा अर्पित कुश और पुष्पोंके समूहसे जो किनारेपर ढका हुआ है, हाथियोंके बच्चोंकी सूँडोंसे जिनकी तरङ्गोंका वेग आक्रान्त हो रहा है, वह गंगाजल हमारा कल्याण करे ।
आदावादिपितामहस्य नियमव्यापारपात्रे जलं
पश्र्चात्पन्नगशायिनो भगवतः पादोदकं पावनम् ।
भूयः शम्भुजटाविभूषणमणिर्जह्नोर्महर्षेरियं
कन्या कल्मषनाशिनी भगवती भागीरथी दृश्यते ॥ ५ ॥
५) जह्नु महर्षिकी कन्या, पापविनाशिनी भगवती भागीरथी, पहले ब्रह्माके कमण्डलुमें जलरुपसे, फिर शेषशायी भगवान्के पवित्र चरणोदक रुपसे और तदपश्र्चात् महादेवजीकी जटाको सुशोभित करनेवाली ( गंगा ) मणिरुपसे दिख रही है ।
शैलेन्द्रादवतारिणी निजजले मज्जज्जनोत्तारिणी
पारावारविहारिणी भवभयश्रेणीसमुत्सारिणी ।
शेषाहेरनुकारिणी हरशिरोवल्लीदलाकारिणी
काशीप्रान्तविहारिणी विजयते गङ्गा मनोहारिणी ॥ ६ ॥
६) हिमालयसे उतरनेवाली, अपने जलमे गोता लगानेवालोंका उद्धार करनेवाली, समुद्रविहारिणी, संसार-आपदाओंका नाश करनेवाली, शेषनागका अनुकरण करनेवाली, शिवजीके मस्तकपर लताके समान सुशोभित, काशीक्षेत्रमें बहनेवाली, मनोहारिणी गंगा विजयी हो ।
कुतो वीचिर्वीचिस्तव यदि गता लोचनपथं
त्वमापीता पीताम्बरपुरनिवासं वितरसि ।
त्वदुत्सङ्गे गङ्गे पतति यदि कायस्तनुभृतां
तदा मातः शातक्रतवपदलभोऽप्यतिलघुः ॥ ७ ॥
७) यदि तुम्हारी तरंग नेत्रोंके सामने आ जाय, तो फिर संसारकी तरंग कहाँ रह सकती है? तुम तुम्हारा जलपान करनेपर वैकुण्ठलोकमें निवास देती हो, हे गंगे ! जब जीवोंका शरीर तुम्हारी गोदमें छूट जाता है, तो हे माता ! उससमय इन्द्रपदकी प्राप्ति भी अत्यन्त तुच्छ मालूम होती है ।
गङ्गे त्रैलोक्यसारे सकलसुरवधूधौतविस्तीर्णतोये
पूर्णब्रह्मस्वरुपे हरिचरणरजोहारिणी स्वर्गमार्गे ।
प्रायश्र्चित्तं यदि स्यात्तव जलकणिका ब्रह्महत्यादिपापे
कस्त्वां स्तोतुं समर्थस्त्रिजगदधहरे देवि गङ्गे प्रसीद ॥ ८ ॥
८) तीनों लोकोंकी सार, सर्वदेवांगनाएँ जिसमे स्नान करती हैं, ऐसे विस्तृत जलवाली, पूर्ण ब्रह्मस्वरुपिणी, स्वर्ग मार्गमें भगवान्के चरणोंकी धूलि धोनेवाली, हे गंगे ! जब तुम्हारे जलका एक कणमात्र ही ब्रह्महत्यादि पापोंका प्रायश्र्चित्त है तो हे त्रैलोक्यपापनाशिनि ! तुम्हारी स्तुति करनेमें कौन समर्थ है ? हे देवि गंगे ! प्रसन्न हो जाओ ।
मातर्जाह्नवि शम्भुसङ्गवलिते मौलौ निधायाञ्जलिं
त्वत्तीरे वपुषोऽवसानसमये नारायणाङ्घ्रिद्वयम् ।
सानन्दं स्मरतो भविष्यति मम प्राणप्रयाणोत्सवे
भूयाद्भक्तिरविच्युताहरिहराद्वैतात्मिका शाश्र्वती ॥ ९ ॥
९) हे शिवकी संगिनी ! माता गंगे ! शरीर शान्त होनेके समय प्राण प्रयाणके उत्सवमें, तुम्हारे तीरपर, सिर नमाकर हाथ जोडे हुए, आनन्दसे भगवान्के चरणयुगलका स्मरण करते हुए मेरी अविचल भावसे हरि-हरमें अभेदात्मिका नित्य भक्ति बनी रहे ।
गङ्गाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेत्प्रयतो नरः ।
सर्वपापविनिर्मुक्तो विष्णुलोकं स गच्छति ॥ १० ॥
इति श्रीशङ्कराचार्यविरचितं श्रीगङ्गाष्टकं सम्पूर्णम् ॥
१०) जो पुरुष शुद्ध होकर इस पवित्र गंगाष्टकका पाठ करता है; वह सब पापोंसे मुक्त होकर वैकुण्ठलोक प्राप्त करता है ।
परमपूज्य श्रीशंकराचार्यने रचा हुआ यह गंगाष्टक यहीं संपन्न हुआ ।
यह अनुवाद स्तोत्ररत्नावली, गीताप्रेसद्वारा (धन्यवाद) प्रकाशित पर आधारित है ।
ShriGangaShtakam
श्रीगङ्गाष्टकम्
Custom Search
No comments:
Post a Comment