DharmaKrut ShriKrishna Stotram
धर्मकृतं श्रीकृष्णस्तोत्रम्
Dharma Krutam ShriKrishna Stotram is in Snskrit. It is created by God Dharma ( God of Death ). These are 24 very pious names of God ShriKrishana. Darma has said that whosover read these 24 names early in the morning every date He will become happy and victotious everywhere. He will follow the path of Dharm and never do any adharma. At the time of date he remembering the name of God ShriKishna. and thus attain Hariloka and become Dasa of God ShriKrishna.
धर्मकृतं श्रीकृष्णस्तोत्रम्
धर्म उवाच
कृष्णं विष्णुं वासुदेवम् परमात्मानमीश्र्वरम् ।
गोविन्दं परमानन्दमेकमक्षरमच्युतम् ॥ १ ॥
धर्म बोले,
१) जो सबको अपनी ओर आकृष्ट करनेवाले सच्चिदानंदस्वरुप है, इसलिये ' कृष्ण ' कहलाते हैं, सर्वव्यापी होनेके कारण जिनकी ' विष्णु ' संज्ञा है, सबके भीतर निवास करनेसे जिनका नाम ' वासुदेव ' है, जो ' परमात्मा ' एवं ईश्र्वर हैं, ' गोविन्द ' , ' परमानन्द ' , ' एक ' , ' अक्षर ' , ' अच्युत '
गोपेश्र्वरं च गोपीशं गोपं गोरक्षकं विभुम् ।
गवामीशं च गोष्ठस्थं गोवत्सपुच्छधारिणम् ॥ २ ॥
२) ' गोपेश्र्वर ', ' गोपीश्र्वर ' , ' गोप ' , ' गोरक्षक ', 'विभु ', ' गौओंके स्वामी ', ' गोष्टनिवासी ' , ' गोवत्सपुच्छधारी ', गोगोपगोपीमध्यस्थं पुरुषोत्तमम् ।
वन्दे नवघनश्यामं रासवासं मनोहरम् ॥ ३ ॥
३) ' गोपों ' और गोपियोंके मध्य विराजमान ' , ' प्रधान ', ' पुरुषोत्तम ' , ' नवघनश्याम ' , ' रासवास ' और ' मनोहर ' आदि नाम धारण करते हैं , उन भगवान श्रीकृष्णकी मैं वन्दना करता हूँ ।
इत्युच्चार्य समुत्तिष्ठन् रत्नसिंहासने वरे ।
ब्रह्मविष्णुमहेशांस्तान् सम्भाष्य स उवास ह ॥ ४ ॥
४) ऐसा कहकर धर्म उठकर खड़े हुए । फिर वे भगवानकी आज्ञासे ब्रह्म, विष्णु और महादेवजीके साथ वार्ता लाप करके उस श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासनपर बैठे ।
चतुर्विंशतिनामानि धर्मवक्त्रोद्गतानि च ।
यः पठेत् प्रातरुत्थाय स सुखी सर्वतो जयी ॥ ५ ॥
५) जो मनुष्य प्रातःकाल उठकर धर्मके मुखसे निकले हुए इन चौबीस नामोंका पाठ करता है, वह सर्वथा सुखी और सर्वत्र विजयी होता है ।
मृत्युकाले हरेर्नाम तस्य साध्यं भवेद् ध्रुवम् ।
स यात्यन्ते हरेः स्थानं हरिदास्यं लभेद् ध्रुवम् ॥ ६ ॥
६) मृत्युके समय उसके मुखसे निश्र्चय ही हरि नामका उच्चारण होता है । अतः वह अन्तमे श्रीहरिके परम धाममें जाता है तथा उसे श्रीहरिकी अविचल दास्य भक्ति प्राप्त होती है ।
नित्यं धर्मस्तं घटते नाधर्मे तद्गतिर्भवेत् ।
चतुर्वर्गफलं तस्य शश्र्वत् करगतं भवेत् ॥ ७ ॥
७) उसके द्वारा सदा धर्मविषयक ही चेष्टा होती है । अधर्ममें उसका मन कभी नहीं लगता । धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरुपी फल सदाके लिए उसके हाथमें आ जाता है ।
तं दृष्ट्वा सर्वपापानि पलायन्ते भयेन च ।
भयानि चैव दुःखानि वैनतेयमिवोरगाः ॥ ८ ॥
८) उसे देखतेही सारे पाप, सम्पूर्ण भय तथा समस्त दुःख उसी तरह भयसे भाग जाते हैं, जैसे गरुड़पर दृष्टि पड़ते ही सर्प पलायन कर जाते हैं ।
॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते धर्मकृतं श्रीकृष्णस्तोत्रं संपूर्णम् ॥
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