Tuesday, September 30, 2014

RatriSuktatmkam Devi Stotram रात्रिसूक्तात्मकं देवी स्तोत्रम्


RatriSuktatmkam Devi Stotram 
RatriSuktatmkam Devi Stotram is in Sanskrit. It is a praise of Goddess Durga Devi. Shortly her very important deeds for the benefit of people and other Gods are mentioned. It is mentioned that she killed Demon Raktbij, Shumha-Nishumbha and Mahishasur.

रात्रिसूक्तात्मकं देवी स्तोत्रम् 
रात्रिदेवीं प्रपद्येऽहं शरणागतवत्सलाम् ।
करालवदनां कृष्णां दुष्टग्रहविनाशिनीम् ॥ १ ॥
नमामि खड्गहस्तां तां खेटहस्तां भयानकाम् ।
वरदाभयहस्तां च भक्तलोकभयापहाम् ॥ २ ॥
शूलहस्तां शंखचक्रगदाचापेषुधारिणीम् ।
चतुर्भुजामष्टभुजां द्विभुजामरिमर्दिनीम् ॥ ३ ॥
अष्टादशभुजां लक्ष्मीं दशहस्तां सरस्वतीम् ।
सर्वसम्पत्प्रदात्रीं च सर्वविद्याप्रदायिनीम् ॥ ४ ॥
सहस्त्रबाहुचरणां सहस्त्रमुखलोचनाम् ।
सहस्त्रमुकुटोपेतां सहस्त्रचरणाम्बुजाम् ॥ ५ ॥
पद्मयोनिमुखाब्जस्थां विष्णुवक्षःस्थळस्थिताम् ।
शिवाङ्कनिलयां गौरीं वन्दे मूर्तित्रयात्मिकाम् ॥ ६ ॥
आभट्या वैष्णवी चोग्रा कुलानि विबुधद्विषाम् ।
या निर्दहति रक्ताक्षी तां वन्दे सिंहवाहनाम् ॥ ७ ॥
मधुकैटभसंहारं महिषासुरमर्दनम् ।
याऽकरोन्योमि दुर्गा तां वधं शुम्भनिशुम्भयोः ॥ ८ ॥
इन्द्रादिसर्वदेवानां सूर्यादिज्योतिषामपि ।
सर्वशक्तिस्वरुपा या रात्रीं तां प्रणमाम्यहम् ॥ ९ ॥
रात्रिसूक्तं जपेद्रात्रौ त्रिवारं च दिने दिने ।
भूतप्रेतपिशाचादिचोरसर्पादिनाशनम् ॥ १० ॥
॥ इति रात्रिसूक्तात्मकदेवीस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

RatriSuktatmkam Devi Stotram 
 रात्रिसूक्तात्मकं देवी स्तोत्रम्


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Monday, September 29, 2014

ShriMahalaxmi Stotram श्रीमहालक्ष्मी स्तोत्रम्


ShriMahalaxmi Stotram 
Shri Mahalaxmi Stotram is in Sanskrit. It is a very beautiful creation of Sri SridharSwami. He was a disciple of Ramdas Swami. SridharSwami has created many stotras.
श्रीमहालक्ष्मी स्तोत्रम्
सर्वसौभाग्यरुपा त्वं सर्वसम्पत्स्वरुपिणी । 
सर्वकल्याणरुपा त्वं महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥ १ ॥
जनश्रीस्त्वं वनश्रीस्त्वं मङ्गलश्रीः स्वभावतः ।
ब्रह्मश्रीश्र्च मोक्षश्रीश्र्च महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥ २ ॥ 
शान्तिस्तुष्टिस्तथापुष्टिर्मेधा कीर्तिश्र्च सन्मतिः ।
दैविसमपत्स्वरुपा त्वं महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥ ३ ॥
मोक्षसाधनसम्पत्तिरायुरारोग्यसंसृतिः ।
सर्वैश्र्वर्यस्वरुपा त्वं महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥ ४ ॥
भक्तियोगा ब्रह्मनिष्ठात्वमेवैकाखिलेश्र्वरी ।
तदैव ब्रह्मरुपा च महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥ ५ ॥
सच्चिदानन्दरुपा त्वं जगन्माता जगत्पिता ।
विष्णुब्रह्ममहेशास्त्वं महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥ ६ ॥ 
यतो हि जायते विश्र्वं यतश्र्च परिपाल्यते ।
यस्मिन् संलीयते ह्यन्ते महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥ ७ ॥ 
यच्च किञ्चित् सुष्ठुजातं यच्च किञ्चित् शुभं सुखम् ।
तदेवैकात्मरुपेण महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥ ८ ॥ 
वेदस्मृतिः सदाचार आत्मतुष्टिर्गुरोः कृपा ।
सर्वोपास्यस्वरुपा त्वं महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥ ९ ॥ 
वशमेवाद्वयं ब्रह्म नित्यानन्दैकमात्रतः । 
भेदबुद्धिमपास्यैवं महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥ १० ॥
॥ इती श्री श्रीधरस्वामी विरचितम् महालक्ष्मिस्तोत्रं संपूर्णम् ॥

ShriMahalaxmi Stotram 
श्रीमहालक्ष्मी स्तोत्रम्


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Sunday, September 28, 2014

Devi Sukta देवी सूक्त


Devi Sukta 
Devi Sukta is in Sanskrit. Any Sukta means a collection of Vaidik stanzas. But when these stanzas are from Vedas, Such collection becomes Mantra. Devi Sukta or Vak Sukta or Aatma sukta is from Rugved's 125th Sukta. This Sukta is created by Vak, the daughter of Ambhrun Rushi. She was enlightened by Brahma-Sakshatkar. She is expressing the Oneness of Brahma everywhere in the universe. There is presence of Brahma in every living as well as every substance and everywhere the Brahma and nothing else than that. Thus the oneness of the Creator and Creation is expressed in this Devi Sukta by Vak Devi. This Vak Devi is the Pragdnya (high intelligence) of the enlightened people. Vak Devi is saying that I am Brahma-Swarupa and I express myself as Rudra, Vasu, Aaditya and VishvaDev. I am Mitra and Varun. I am Indra and Aghani. I am care taker and feeder of both of the Ashavini Kumar is because of me. I destroy enemies, remove the bad virtues, bad wills; I am the source of all happiness. Som in Yagnya, Chandrama and Mind or Shiva’s presence is because of me. I represent Tvashta, Pusha and Bhaga. The host of the Yagnya who gives Havishya (offerings given to Gods in the Yagnya) to Gods is blessed by me. I am the Goddess of this Universe. I give happiness and money to the devotees. I am the leader of those for those for whom Yagnyas are performed. I express myself in every creature, animal. Everywhere and anywhere anything is done, is done for me only and by me only.
देवी सूक्त
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्र्चराम्यहमादित्यैरुत विश्र्वदेवैः ।
अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्र्विनोभा ॥ १ ॥
अहं सोममाहनसं बिभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम् ।
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते ॥ २ ॥
अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् ।
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम् ॥ ३ ॥
मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणितियईं श्रृणोत्युक्तम् ।
अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि ॥ ४ ॥
अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः।
यं कामये तं तमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम् ॥ ५ ॥
अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ ।
अहं जनाय समदं कृणोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश ॥ ६ ॥
अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन् मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे ।
ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि ॥ ७ ॥
अहमेव वात इव प्र वाम्यारभमाणा भुवनानि विश्र्वा ।
परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना सं बभूव ॥ ८ ॥ 
॥ इति देवी सूक्त ॥
देवी सूक्त हिंदी अनुवाद 
यह अनुवाद कल्याण प्रकाशनके वेद-कथा अंकसे अंशतः आभार सहित लिया गया हैं ।
भगवती पराम्बाके अर्चन-पूजनमे यह देवी सूक्त बहुत महत्व रखता हैं । ऋगवेदके दशम मण्डलका १२५वॉ " वाक्-सूक्त है । इसे आत्मसूक्त भी कहते हैं । इसमें अम्भृण ऋषिकी पुत्री वाक् उसे ब्रह्मसाक्षात्कारसे आत्मज्ञान प्राप्त होनेके कारण सर्वात्मदृष्टिको अभिव्यक्त कर रही हैं । ब्रह्मविद्की वाणी ब्रह्मसे तादात्म्यापन्न होकर अपने-आपको ही सर्वात्माके रुपमें वर्णन कर रही हैं । ये ब्रह्मस्वरुपा वाग्देवी ब्रह्मानुभवी जीवन्मुक्त महापुरुषकी ब्रह्ममयी प्रज्ञा ही हैं । इस सूक्तमें प्रतिपाद्य-प्रतिपादकका एकात्म्य सम्बन्ध दर्शाया गया है । 
ब्रह्मस्वरुपा मैं रुद्र, वसु, आदित्य और विश्र्वदेवताके रुपमें विचरण करती हूँ, अर्थात् मैं ही उन सभी रुपोमें भासमान हो रही हूँ । मैं ही ब्रह्मरुपसे मित्र और वरुण दोनोंको धारण करती हूँ । मैं ही इन्द्र और अग्निका आधार हूँ । मैं ही दोनो अश्विनीकुमारोंका धारण-पोषण करती हूँ ।
मैं ही शत्रुनाशक, कामादि दोष-निवर्तक, परमाल्हाददायी, यज्ञगत सोम, चन्द्रमा, मन अथवा शिवका भरण पोषण करती हूँ । मैं ही त्वष्टा, पूषा और भगको भी धारण करती हूँ । जो यजमान यज्ञमें सोमाभिषवके द्वारा देवताओंको तृप्त करनेके लिये हाथमें हविष्य लेकर हवन करता है, उसे लोक-परलोकमें सुखकारी फल देनेवाली मैं ही हूँ ।
मैं ही राष्ट्री अर्थात् सम्पूर्ण जगत् की ईश्र्वरी हूँ । मैं उपासकोंको उनके अभीष्ट वसु-धन प्राप्त करानेवाली हूँ ।
जिज्ञासुओंके साक्षात् कर्तव्य परब्रह्मको अपनी आत्माके रुपमें मैंने अनुभव कर लिया है । जिनके लिये यज्ञ किये जाते हैं, उनमें मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ । सम्पूर्ण प्रपञ्चके रुपमें मैं ही अनेक-सी होकर विराजमान हूँ । सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीरमें जीवनरुपमें मैं अपने-आपको ही प्रविष्ट कर रही हूँ । भिन्नभिन्न देश, काल, वस्तु और व्यक्तियोंमें जो कुछ हो रहा है, किया जा रहा है, वह सब मुझमें मेरे लिये ही किया जा रहा है । सम्पूर्ण विश्वके रुपमें अवस्थित होनेके कारण जो कोई जो कुछ भी करता है, वह सब मैं ही हूँ ।
जो कोई भोग भोगता है, वह मुझ भोक्त्रीकी शक्तिसे ही भोगता है । जो देखता है, जो श्र्वासोच्छ्वासरुप व्यापार करता है और जो कही हुई सुनता है, वह भी मुझसे ही है । जो इस प्रकार अन्तर्यामिरुपसे स्थित मुझे नहीं जानते, वे अज्ञानी दीन, हीन, क्षीण हो जाते हैं । मेरे प्यारे सखा ! मेरी बात सुनो-- मैं तुम्हारे लिये उस ब्रह्मात्मक वस्तुका उपदेश करती हूँ, जो श्रद्धा-साधनसे उपलब्ध होती है ।
मैं स्वयं ही ब्रह्मात्मक वस्तुका उपदेश करती हूँ । देवताओं और मनुष्योंने भी इसीका सेवन किया है । मैं स्वयं ब्रह्मा हूँ । मैं जिसकी रक्षा करना चाहती हूँ, उसे सर्वश्रेष्ठ बना देती हूँ, मैं चाहूँ तो उसे सृष्टिकर्ता ब्रह्मा बना दूँ और उसे बृहस्पतिके समान सुमेधा बना दूँ । मैं स्वयं अपने स्वरुप ब्रह्मभिन्न आत्माका गान कर रही हूँ ।
मैं ही ब्रह्मज्ञानियोंके द्वेषी हिंसारत त्रिपुरवासी त्रिगुणाभिमानी अहंकारी असुरका वध करनेके लिये संहारकारी रुद्रके धनुषपर ज्या (प्रत्यञ्चा) चढाती हूँ । मैं ही अपने जिज्ञासु स्तोताओंके विरोधी शत्रुओंके साथ संग्राम करके उन्हें पराजित करती हूँ । मैं ही द्युलोक और पृथिवीमें अन्तर्यामिरुपसे प्रविष्ट हूँ ।
इस विश्वके शिरोभागपर विराजमान द्युलोक अथवा आदित्यरुप पिताका प्रसव मैं ही करती रहती हूँ । उस कारणमें ही तन्तुओंमें पटके समान आकाशादि सम्पूर्ण कार्य दीख रहा है । दिव्य कारण-वारिरुप समुद्र, जिसमें सम्पूर्ण प्राणियों एवं पदार्थोंका उदय-विलय होता रहता है, वह ब्रह्मचैतन्य ही मेरा निवासस्थान है । यही कारण है कि मैं सम्पूर्ण भूतोंमें अनुप्रविष्ट होकर रहती हूँ और अपने कारणभूत मायात्मक स्वशरीरसे सम्पूर्ण दृश्य कार्यका स्पर्श करती हूँ ।
जैसे वायु किसी दूसरेसे प्रेरित न होनेपर भी स्वयं प्रवाहित होता है, उसी प्रकार मैं ही किसी दूसरेके द्वारा प्रेरित और अधिष्ठित न होनेपर भी स्वयं ही कारणरुपसे सम्पूर्ण भूतरुप कार्योंका आरम्भ करती हूँ । मैं आकाशसे भी परे हूँ और इस पृथ्वीसे भी । अभिप्राय यह है कि मैं सम्पूर्ण विकारोंसे परे, असङ्ग, उदासीन, कूटस्थ ब्रह्मचैतन्य हूँ । अपनी महिमासे सम्पूर्ण जगत् के रुपमें मैं ही बरत रही हूँ, रह रही हूँ ।   
Devi Sukta 
देवी सूक्त


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Saturday, September 27, 2014

Shri Bhuvaneshwari Kavacham श्री भुवनेश्र्वरी कवचम्


Shri Bhuvaneshwari Kavacham 
Shri Bhuvaneshwari Kavacham is in Sanskrit. It is a discussion between Goddess Durga Devi and God Shiva. It is from Rudrayamal Tantre. Falashruti: It is said in the sholaks from 19 to 25 that what are the benefits of reciting/listening this kavacham are. It is said that this is a very pious kavacham and it is a very big source of Vidya, knowledge. Kuber has become rich because of reciting this kavacham. God Indra has also become king of Gods. All sidhies and all happiness, money, property and richness and knowledge is received by reciting it daily with faith, concentration and devotion for a year. Male should ware this Kavacham on the right hand and woman on left. Even a bare woman becomes mother of many sons (issues).
श्री भुवनेश्र्वरी कवचम्
देवि उवाच
देवेश भुवनेश्र्वर्या या या विद्याः प्रकाशिताः ।
श्रुताश्र्च अधिगताः सर्वाः श्रोतुं इच्छामि सांप्रतम् ॥ १ ॥
त्रैलोक्य मङ्गलं नाम कवचं यत् पुरोदितम् । 
कथयस्व महादेव मम प्रीतिकरं परम् ॥ २ ॥
ईश्र्वर उवाच 
श्रुणु पार्वति वक्ष्यामि सावधानावधारय ।
त्रैलोक्य मङ्गलं नाम मन्त्र विग्रहम् ॥ ३ ॥
सिद्धविद्यामयं देवि सर्वैश्र्वर्य समन्वितम् ।
पठनात् धारणात् मर्त्यः त्रैलोकैश्र्वर्य भाग्भवेत् ॥ ४ ॥
ॐ अस्य श्री भुवनेश्र्वरी त्रैलोक्य मङ्गल कवचस्य 
शिव ऋषिः, विराट् छन्दः 
जगदात्री भुवनेश्र्वरी देवता 
धर्मार्थ काम मोक्षार्थे जपे विनियोगः ॥
हृीं बीजं मे शिरः पातु भुवनेशी ललाटकम् ।
ऐं पातु दक्षनेत्रं मे हृीं पातु वामलोचनम् ॥ १ ॥
श्रीं पातु दक्षकर्णं मे त्रिवर्णात्मा महेश्र्वरी ।
वामकर्ण सदा पातु ऐं घ्राणं पातु मे सदा ॥ २ ॥
हृीं पातु वदनं देवि ऐं पातु रसनां मम ।
वाक्पुटा च त्रिवर्णात्मा कण्ठं पातु परात्मिका ॥ ३ ॥
श्रीं स्कन्धौ पातु नियतं हृीं भुजौ पातु सर्वदा ।
क्लीं करौ त्रिपुटा पातु त्रिपुर ऐश्र्वर्य प्रदायिने ॥ ४ ॥
ॐ पातु हृदयं हृीं मे मध्यदेशं सदावतु ।
क्रौं पातु नाभिदेशं मे त्र्यक्षरी भुवनेश्र्वरी ॥ ५ ॥
सर्वबीजप्रदा पृष्ठं पातु सर्वशङ्करी ।
हृीं पातु गुह्यदेशं मे नमो भगवती कटिम् ॥ ६ ॥
माहेश्र्वरी सदा पातु शङ्खिनी जानु युग्मकम् ।
अन्नपूर्णा सदा पातु स्वाहा पातु पदद्वयम् ॥ ७ ॥
सप्तदशाक्षरा पायाद् अन्नपूर्णाखिलं वपुः ।
तारं माया रमाकामः षोडशार्णा ततः परम् ॥ ८ ॥
शिरःस्था सर्वदा पातु विंशत्यर्णात्मिका परा ।
तार दुर्गे युगं रक्षिणी स्वाहेति दशाक्षरा ॥ ९ ॥
जयदुर्गा घनश्यामा पातु मां सर्वतो मुदा ।
मायाबीजादिका चैषा दशार्णा च ततः परा ॥ १० ॥
उत्तप्त काञ्चन आभासा जयदुर्गा आननेऽवतु ।
तारं हृीं दुं च दुर्गायै नमोऽष्टात्मिका परा ॥ ११ ॥
शङ्ख चक्र धनुर्बाणधरा मां दक्षिणेऽवतु ।   
महिषामर्दिनी स्वाहा वसुवर्णात्मिका परा ॥ १२ ॥
नैऋत्यां सर्वदा पातु महिषासुरनाशिनी ।
माया पद्मावती स्वाहा सप्तार्णा परिकीर्तिता ॥ १३ ॥
पद्मावती पद्मसंस्था पश्र्चिमे मां सदाऽवतु ।
पाशाङ्कुशपुटा मायो स्वाहा हि परमेश्र्वरी ॥ १४ ॥
त्रयोदशार्णा ताराद्या अश्र्वारुढा अनलेऽवतु ।
सरस्वति पञ्चस्वरे नित्यक्लिन्ने मद्द्रवे ॥ १५ ॥
स्वाहा वस्वक्षरा विद्या उत्तरे मां सदाऽवतु ।
तारं माया च कवचं खे रक्षेत् सततं वधूः ॥ १६ ॥
हूँ क्षें हृीं फट् महाविद्या द्वादशाणं अखिलप्रदा ।
त्वरिताष्टाहिभिः पायात् शिवकोणे सदाच माम् ॥ १७ ॥ 
ऐं क्लीं सौः सततं बाला मूर्धदेशे ततोऽवतु ।
बिन्द्वान्ता भैरवी बाला हस्तौ मां च सदाऽवतु ॥ १८ ॥
इति ते कथितंपुण्यं त्रैलोक्य मङ्गलं परम् ।
सारात्सारतरं पुण्यं महाविद्यौघ विग्रहम् ॥ १९ ॥
अस्यापि पठनात् सद्यः कुबेरोऽपि धनेश्र्वरः ।
इन्द्राद्याः सकला देवा धारणात् पठनाद्यतः ॥ २० ॥
सर्व सिद्धीश्र्वराः सन्तः सर्वैश्र्वर्यं अवाप्नुयुः ।
पुष्पाञ्जल्य अष्टकं दद्यान् मूलेनैव पृथक् पृथक् ॥ २१ ॥
संवत्सर कृतायास्तु पूजायाः फलं आप्नुयात् ।
प्रीतिमन्यो अन्यतः कृत्वा कमला निश्र्चला गृहे ॥ २२ ॥
वाणी च निवसेत् वक्त्रे सत्यं सत्यं न संशयः ।
यो धारयति पुण्यात्मा त्रैलोक्य मङ्गलाभिधम् ॥ २३ ॥
कवचं परमं पुण्यं सोऽपि पुण्यवतां वरः ।
सर्वैश्र्वर्य युतो भूत्वा त्रैलोक्य विजयी भवेत् ॥ २४ ॥
पुरुषो दक्षिणे बाहौ नारी वामभुजे तथा ।
बहुपुत्रवती भूयात् वन्ध्यापि लभते सुतम् ॥
ब्रह्मास्त्रादीनि शस्त्राणि नैव कृतन्ति तं जनम् ॥ २५ ॥
एतत् कवचमज्ञात्वा यो भजेत् भुवनेश्र्वरीम् ।
दारिद्र्यं परमं प्राप्य सोऽचिरान्मृत्युमाप्नुयात् ॥ २६ ॥

॥ इति श्री रुद्रयामले तन्त्रे देवि ईश्र्वर संवादे त्रैलोक्य मङ्गलं नाम भुवनेश्र्वरी कवचं संपूर्णम् ॥

Shri Bhuvaneshwari Kavacham 
श्री भुवनेश्र्वरी कवचम्


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Friday, September 26, 2014

ShriShantaDurga Stotra श्रीशांतादुर्गा स्तोत्र



ShriShantaDurga Stotra 
ShriShantaDurga Stotra is in Marathi. It is a very beautiful creation of Param Poojya Vasudevanand Saraswati who was a great devotee of God Dattatreya. Goddess Shanta Durga Temple is at Keloshi in Goa. This Stotra is created by P.P Vasudevanand Saraswati while he was in Goa and went in the temple for darshan.
श्रीशांतादुर्गा स्तोत्र
नमोस्तु ते देवि जगन्निवासे ।
सच्चिद्विलासे सुमनोज्ञहासे ।।
ह्या सेवकाची परिसें विनंती ।
धरुनि कारुण्यलवा स्वचित्तीं ॥ १ ॥
ब्रह्मांड हे निर्मिसि तूं महेशी ।
चिच्छक्ति तूं हेतु न केवि होशी ।।
उत्पत्ति-रक्षा-प्रलयादि हेतू ।
ती तूं करी हा मम पूर्ण हेतू ॥ २ ॥
उपासना नित्य तुझी घडावी ।
त्वत्पादभक्ती हृदयी जडावी ॥ 
मुखी तुझे नाम वसो सदैव ।
जे शीघ्र वारी भजतां कुदैव ॥ ३ ॥
मी पापि आहे जरि का कुबुद्धि ।
तरी मला देऊनि तूं सुबुद्धि ॥
बुद्धिप्रकाशे मज तारि ईशे ।
धीशे शिरी हस्त धरी ञ्यधीशे ॥ ४ ॥
तापत्रया तूं निववी भवानी ।
पापत्रया तूं शमवी मृडानी ॥
शर्वाणि सर्वार्ति हरी सदैव ।
रुद्राणि माझे शमवी कुदैव ॥ ५ ॥
रुद्राणि हृद्रोग हरी अशेष ।
शर्वाणि आपत्ति हरी अशेष ॥
दारिद्र्य दुःखौघभवा निवारी ।
अरिष्ट वारोनि अमित्र वारी ॥ ६ ॥
तारी शांते दुर्व्यसनी सनातनी ।
वारी भवाब्धीतुनि तूं चिरंतनी ॥
कुसंग वारी मज देई सन्मती ।
सुसंगयोगे मज देई सद्गती ॥ ७ ॥
न लाभ मागे विजया न मागे ।
उत्कर्ष मागे न सुकीर्ति मागे ॥
मागें तुझे पाद हृदीं असावे ।
त्वत्पादिं मच्चित्त सदा वसावें ॥ ८ ॥
कृपाकटाक्षे पहातां न तोटा ।
तुझा मला होईल लाभ मोठा ॥
तेव्हा कृपादृष्टिलवें शिवे तूं ।
मला निरीक्षी हरि जन्महेतू ॥ ९ ॥
केळोशीत जी निवसे ।
शांतादुर्गाऽभिधा असे ॥
तिची स्तुती करी यती ।
वासुदेव सरस्वती ॥ १० ॥
॥ इति प.पू. श्री वासुदेवानंद सरस्वती विरचित श्रीशांतादुर्गा स्तोत्र संपूर्ण ॥
आभार शुभदा रेगे आणि वासुदेवाश्रम पुणे      
ShriShantaDurga Stotra 
श्रीशांतादुर्गा स्तोत्र


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Saturday, September 13, 2014

Shri Garudasya Dwadasha Nam Stotram श्रीगरुडस्य द्वादशनाम स्तोत्रम्


Shri Garudasya Dwadasha Nam Stotram
Shri Garudasya Dwadasha Nam Stotram is in Sanskrit. It is from Bruhat-Tantrasar. If anybody reads/listen or recite this stotra at the time of bath or while going to sleep; he never has a fear from poison, poisonous animals, creatures and he also becomes free if he is in sombody's custody. Garud has a very special importance for us. Garuda is a vehicle of God Vishnu. Garuda asked so many questions to God Vishnu regarding life of a the person after death and hence we came to know about our pitrues and pitru lok. It results in Garud Purana coming into existence. Hence in the current pitru Paksha Shri Garudasya Dwadasha Nam Stotram is uploaded.
श्रीगरुडस्य द्वादशनाम स्तोत्रम्
सुपर्णं वैनतेयं च नागारिं नागभीषणम् ।
जितान्तकं विषारिं च अजितं विश्वरुपिणम् ।
गरुत्मन्तं खगश्रेष्ठं तार्क्ष्यं कश्यपनन्दनम् ॥ १ ॥
द्वादशैतानि नामानि गरुडस्य महात्मनः ।
यः पठेत् प्रातरुत्थाय स्नाने वा शयनेऽपि वा ॥ २ ॥
विषं नाक्रामते तस्य न च हिंसन्ति हिंसकाः ।
संग्रामे व्यवहारे च विजयस्तस्य जायते ।।
बन्धनान्मुक्तिमाप्नोति यात्रायां सिद्धिरेव च ॥ ३ ॥
॥ इति बृहद्तन्त्रसारे श्रीगरुडस्य द्वादशनाम स्तोत्रम् संपूर्णं ॥ 
महात्मा गरुडाजीके बारह नाम इसप्रकार हैं-
१) सुपर्ण (सुंदर पंखवाले) २) वैनतेय (विनताके पुत्र )
३) नागारि ( नागोकें शत्रु ) ४) नागभीषण ( नागोंकेलिये भयंकर ) ५) जितान्तक ( कालको भी जीतनेवाले )
६) विषारिं (विषके शत्रु ) ७) अजित ( अपराजेय )
८) विश्वरुपी ( सर्बस्वरुप ) ९) गरुत्मान् ( अतिशय पराक्रमसम्पन्न ) १०) खगश्रेष्ठ ( पक्षियोंमे सर्वश्रेष्ठ )
११) तार्क्ष (गरुड ) १२) कश्यपनन्दन ( महर्षि कश्यपके पुत्र ) इन बारह नामोंका जो नित्य प्रातःकाल उठकर स्नानके समय या सोते समय पाठ करता है, उसपर किसी भी प्रकारके विषका प्रभाव नहीं पडता, उसे कोई हिंसक प्राणी
मार नहीं सकता, युद्धमें तथा व्यवहारमें उसे विजय प्राप्त होती है, वह बन्धनसे मुक्ति प्राप्त कर लेता है और उसे यात्रामे सिद्धि मिलती है । 

कल्याण वर्ष ८४ संख्या ६ जून २०१०




Shri Garudasya Dwadasha Nam Stotram 
श्रीगरुडस्य द्वादशनाम स्तोत्रम्


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Saturday, September 6, 2014

SwadhaStotram स्वधास्तोत्रम्

Swadhastoram 
I am uploading this SwadhaStotram for Pitru Paksha or Pitru Pandharwada. There is very special importance of this stotra on a day of Sradha as one gets blessings of his pitrues as they become satisfied. So listen this on the day of SradhaKarma. I had already uploaded following two stotras for Pitru Paksha. 
Pitru Stotra:  
Pitru Stuti:
SwadhaStotram is in Sanskrit. It is from Brahmvaivart Purana, Prakruti Khanda. It is created by God Brahma. God Brahma is telling that only by uttering “Swadha” one can get benefit of bathing in a holy river. If “Swadha” word is repeated three times then one gets benefits of performing Sradha, Kal and Tarpanam. If the word “Swadha” is repeated thrice on a day of Sradha then one gets poonya of performing hundred Sradha karmas.


Swadha Stotram 
Brahmovacha (Brahma Uvacha) 
swadhochar matren thirsnayii bhavennaraha I 
muchyate sarvapapebhyo vajpeyaflam labhet ॥ 1 ॥ 
 swadhaa swadhaa swadhetyevam ydi var trayam smaret ।
shraadhasya falamapnoti kalsya trpnasy cha ॥ 2 ॥ 
shraadhakaale swadhastotram yaha shrunoti smahitaha ।
labhet shraadhashataanaam cha punyamev na samshayaha ॥ 3 ॥ 
swadhaa swadhaa swadhetyevam trisndhyam yaha pathennaraha । 
priyaam vinitaam sa labhetsaadhviim putram gunaanvitam ॥ 4 ॥ 
pitrunaam pranatulyaa tvam dwijajiivanarupinii । 
shraadhaadhishthaatrudevii cha shraadhadiinaam falapradaa ॥ 5 ॥ 
bhirgchcha manmanasaha pitrunaam tushtihetve ।
sampriitye dwijatiinaam gruhinaam vrudhihetve ॥ 6 ॥ 
nityaa tvam nityaswarupaasi gunarupaasi suvrate । 
aavirbhavastirobhaavaha srushtou cha pralaye tava ॥ 7 ॥ 
om swastishcha namaha swaahaa swadhaa tvam dakhinaa tathaa । 
nirupitaashchaturvede shat prashastaashcha karminaam ॥ 8 ॥ 
purasiistvam swadhaagopii goloke raadhika sakhii । 
dhrutorasi swadhatmaanam krutam ten swadhaa smrutaa ॥ 9 ॥ 
etyevamuktvaa sa brahmaa brahmaloke cha samsadi । 
tasthou cha sahasaa sdyaha swadhaa saavirbabhoova ha ॥ 10 ॥ 
tadaa pitrubhyaha pradadou taameva kamalaananaam । 
taam sampraapya yayuste cha pitrashcha praharshitaahaa ॥ 11 ॥ 
swadhaa stotramidam punyam yaha shrunoti samaahitaha । 
sa snaataha sarvatiirtheshu vedapaatha falam labhet ॥ 12 ॥ 
॥ eti shrii brahmavaivarta mahaapuraane prakrutikhande 
brahmaakrutam swadhaastotram sampoornam ॥
स्वधास्तोत्रम् 

ब्रह्मोवाच 
स्वधोच्चारमात्रेण तीर्थस्नायी भवेन्नरः । 

मुच्यते सर्वपापेभ्यो वाजपेयफलं लभेत् ॥ १ ॥ 

स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं यदि वारत्रयं स्मरेत् । 

श्राद्धस्य फलमाप्नोति कालस्य तर्पणस्य च ॥ २ ॥
श्राद्धकाले स्वधास्तोत्रं यः श्रृणोति समाहितः ।
लभेच्छ्राद्धशतानां च पुण्यमेव न संशयः ॥ ३ ॥
स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं त्रिससन्ध्यं यः पठेन्नरः ।
प्रियां विनीतां स लभेत्साध्वीं पुत्रं गुणान्वितम् ॥ ४ ॥
पितृणां प्राणतुल्या त्वं द्विजजीवनरुपिणी ।
श्राद्धाधिष्ठातृदेवी च श्राद्धादीनां फलप्रदा ॥ ५ ॥
बहिर्गच्छ मन्मनसः पितृणां तुष्टिहेतवे ।
सम्प्रीतये द्विजातीनां गृहिणां वृद्धिहेतवे ॥ ६ ॥
नित्या त्वं नित्यस्वरुपासि गुणरुपासि सुव्रते ।
आविर्भावस्तिरोभावः सृष्टौ च प्रलये तव ॥ ७ ॥
ॐस्वस्तिश्च नमः स्वाहा स्वधा त्वं दक्षिणा तथा ।
निरुपिताश्चतुर्वेदे षट् प्रशस्ताश्च कर्मिणाम् ॥ ८ ॥
पुरासीस्त्वं स्वधागोपी गोलोके राधिकासखी ।
धृतोरसि स्वधात्मानं कृतं तेन स्वधा स्मृता ॥ ९ ॥
इत्येवमुक्त्वा स ब्रह्मा ब्रह्मलोके च संसदि ।
तस्थौ च सहसा सद्यः स्वधा साविर्बभूव ह ॥ १० ॥
तदा पितृभ्यः प्रददौ तामेव कमलाननाम् ।
तां संप्राप्य ययुस्ते च पितरश्च प्रहर्षिताः ॥ ११ ॥
स्वधा स्तोत्रमिदं पुण्यं यः श्रृणोति समाहितः ।
स स्नातः सर्वतीर्थेषु वेदपाठफलं लभेत् ॥ १२ ॥
॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे ब्रह्माकृतं  स्वधास्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥  
स्वधास्तोत्रं मराठी अर्थ:

ब्रह्मदेव म्हणाले:

१) स्वधा शब्दाच्या उच्चाराने माणूस तीर्थांमध्ये स्नान केल्याप्रमाणे पवित्र होतो. तो सर्व पापांतून मुक्त होऊन वाजपेय यज्ञाच्या फलाचा अधिकारी होतो. 

२) स्वधा, स्वधा, स्वधा अशा तीनवेळा स्मरणाने तो श्राद्ध, काल आणि तर्पण यांच्या फलाचा प्राप्त करणारा होतो.

३) श्राद्धाच्या दिवशी जो सावधानतेने स्वधादेवीच्या या स्तोत्राचे श्रवण करतो, त्याला निःसंशय शंभर श्राद्ध केल्याचे पुण्य मिळते. 

४) जो माणूस त्रिकाल संध्यासमयी स्वधा, स्वधा, स्वधा या पवित्र नामाचा पाठ करतो, त्याला विनम्र, पतिव्रता अणि प्रिय पत्नीचा लाभ होतो. तसेच त्याला सद्गुण संपन्न पुत्राचा लाभ होतो. 
५) हे देवि! तूं पितरांसाठी प्राणतुल्य आहेस. ब्राह्मणांसाठी जीवनस्वरुपिणी आहेस. तूला श्राद्धकर्माची अधिष्ठात्री देवी म्हटले जाते. तुझ्या कृपेनेच श्राद्ध आणि तर्पणाचे फल मिळते. 
६) तू पितरांच्या तुष्टिसाठी, ब्राह्मणांच्या प्रेमासाठी आणि गृहस्थांच्या अभिवृद्धिसाठी माझ्या मनामधून बाहेर ये.
७) सुव्रते तू नेहमी आहेस. तुझा विग्रह नित्य आणि गुणमय असतो. तूं सृष्टि बरोबरच प्रगट होतेस आणि प्रलयकाली तुझा विलय होतो.
८) तुला ॐ, नमः, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा तसेच दक्षिणा आहेस. चारी वेदांमध्ये तुझ्या या सहा स्वरुपांचे विवरण केलेले आहे. कर्मकाण्डी लोकांमध्ये या सहा नावाना मोठी मान्यता आहे. 
९) हे देवि ! तू या आधि गोलोकांत ' स्वधा ' नावाची गोपी होतीस आणि राधेची सखी होतीस. भगवान श्रीकृष्णाने तुला आपल्या वक्षःस्थळावर धारण केले होते. यामुळे तुला स्वधा हे नाव मिळाले.
१०) अशा प्रकारे देवी स्वधाचे गुणगान करुन ब्रह्मदेव आपल्या सभेंत विराजमान झाले. इतक्यांत भगवती स्वधा त्यांच्यासमोर प्रगट झाली.
११) तेव्हां पितामहाने त्या कमलनयनी देवीला पितरांना समर्पित केले. त्या देवीच्या प्राप्तीमुळे पितर अत्यंत आनंदित झाले व आपल्या लोकी निघून गेले.
१२) हे भगवती स्वधादेवीचे परम पावन स्तोत्र आहे. जो कोणी समर्पित वृत्तीने हे ऐकेल त्याला सर्व तीर्थांमध्ये स्नान केल्याचे पुण्य तसेच वेदपाठाचे फल प्राप्त होते. 
अशा रीतीने श्रीब्रह्मवैवर्त पुराणांतील प्रकृतीखंडांतील हे ब्रह्मदेवाने रचिलेले स्वधा स्तोत्र येथे पुरे झाले.  
SwadhaStotram 
स्वधास्तोत्रम्




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ShriSantanGanpati Stotram श्रीसंतान गणपति स्तोत्रम्


ShriSantanGanpati Stotram 
ShriSantanGanapati Stotram is in Sanskrit. It is said that a couple if recites this stotra daily then can have an issue (santati). Such santati is having a good health, intelligent, devotee of God Ganapati and has long life. However Stotra is to be recited daily with faith, devotion and concentration.
श्रीसंतान गणपति स्तोत्रम्
नमोऽस्तु ते गणनाथाय सिद्धिबुद्धियुताय च ।
सर्वप्रदाय देवाय पुत्रवृद्धिप्रदाय च ॥ १ ॥
गुरुदराय गुरवे गोप्त्रे गुह्यसिताय ते ।
गोप्याय नोदिताशेषभुवनाय चिदात्मने ॥ २ ॥
विश्र्वमूलाय भव्याय विश्र्वसृष्टिकराय ते ।
नमो नमस्ते सत्याय सत्यपूर्णाय शुण्डिने ॥ ३ ॥
एकदंताय शुद्धाय सुमुखाय नमो नमः ।
प्रपन्नजनपालाय प्रकृतार्तिविनाशिने ॥ ४ ॥
शरणं भव देवेश सन्ततिं सुदृढां कुरु ।
भविष्यन्ति च ये पुत्रा मत्कुले गणनायक ॥ ५ ॥
ते सर्वे व पूजार्थे निरताः स्युर्वरो मतः ।
पुत्रप्रदमिदं स्तोत्रं सर्वसिद्धिप्रदायकम् ॥ ६ ॥
॥ इति श्रीसन्तानगणपतिस्तोत्रं संपूर्णम् ॥ 
( साभार श्रीगणपतीची प्रभावी स्तोत्रे )

ShriSantanGanpati Stotram 
श्रीसंतान गणपति स्तोत्रम्


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Friday, September 5, 2014

Shri Ganesh ManasPooja श्रीगणेश मानसपूजा


Shri Ganesh ManasPooja 
  Shri Ganesh ManasPooja is in Sanskrit. Manas Pooja means the pooja performed in the mind. We have to sit in calm and quietly and perform it. See God Ganesha on screen of your mind. Now offer whatever best you can to the God. Costly Ornaments, Vastra, flowers, garlands, Sweets, everything you have to see in your mind and assume that you are giving it to God Ganesha. Your honest feeling is enough. You don't have to purchase anything. We have to visualize that everything best we are giving to god. Please have an experience and see that all your good wishes are fulfilled by the blessings of God Ganesha.
श्रीगणेश मानसपूजा 
नानारत्नविचित्रकं रमणिकं सिंहासनं कल्पितम् ।
स्नानं जान्हविवारिणा गणपते पीतांबरं गृह्यताम् । 
कंठे मौक्तिकमालिका श्रुतियुगे द्वे धारिते कुंडले ।
नानारत्नविराजितो रविविभायुक्तः किरीटः शिरे ॥ १ ॥
भाले चर्चितकेशरं मृगमदामोदांकितं चंदनम् ।
नानावृक्षसमुद्गतं सुकुसुमं मंदारदुर्वाशमीः ।
गुग्गूल्लोद्धवधूपकं विरचितं दीपं त्वदग्रे स्थितम् ।
स्वीकृत ते गणेश भक्ष्यं जंबूफलं दक्षिणाम् ॥ २ ॥
साष्टांगं प्रणतोऽस्मि ते मम कृता पूजा गृहाण प्रभो ।
मे कामः सततं तवार्चनविधौ बुद्धिस्तवालिंगने ।
स्वेच्छा ते मुखदर्शने गणपते भक्तिस्तु पादांबुजे ।
प्रसीद मम पूजने गणपते मम वांच्छा तव दर्शने ॥ ३ ॥
माता गणेशश्र्च पिता गणेशो ।
भ्राता गणेशश्र्च सखा गणेशः ।
विद्यागणेशो द्रविणं गणेशः ।
स्वामी गणेशः शरणं गणेशः ॥ ४ ॥
इतो गणेशः परतो गणेशः ।
यतो यतो यामि ततो गणेशः ।
गणेशदेवादपरं न किंचित् ।
तस्मात् गणेशं शरणं प्रपद्ये ॥ ५ ॥
इति श्रीगणेश मानसपूजा संपूर्णं ॥ 
Shri Ganesh ManasPooja 
श्रीगणेश मानसपूजा




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